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________________ चतुर्थ अधिकार :: 207 हैं। पानी व यावत् वनस्पतियों के लिए यह शब्द काम में आता है। यद्यपि त्रस जीव का शरीर भी सचित्त कहलाता है, परन्तु उसके घात का त्याग प्रथम श्रेणी का श्रावक कर ही चुकता है, इसलिए उस त्रस सचित्त का अर्थ लेना यहाँ आवश्यक नहीं है। हाँ, पानी व वनस्पति का भोजन में ग्रहण सम्भव है और वह यदि सचित्त हो तो वह भी त्याज्य है, हेय है। यही अभिप्राय दिखाने के लिए सचित्त को अतिचारों में गर्भित किया है। यहाँ सचित्त का अर्थ योनिभूतता से है क्योंकि सचित्त योनि से जीवोत्पत्ति होती है अतः सचित्त त्यागी उन वस्तुओं की मर्यादा अचित्त करके प्रयोग में लाता है। क्योंकि आचार्यों ने सचित्त को अचित्त करने की विधियों का वर्णन किया है। सचित्त से सम्बन्ध रखने वाले पदार्थ को खाने से अतिचार दोष लगेगा, परन्तु सचित्त से मिले हुए भोजन के करने से और केवल सचित्त भोजन करने से तो अतिचार न लगकर व्रतभंग होना चाहिए? यह शंका होना सम्भव है, परन्तु अज्ञानवश' या कदाचित् ऐसा होने से व्रतभंग नहीं होता। जैसे कि एक साबुत कच्चा फल है और उसे पका समझकर खा लिया हो तो व्रतभंग नहीं होगा। अभिषव का अर्थ द्रवपदार्थ और गरिष्ठ पदार्थ होता है। सौवीरादिक जो कि बहत दिनों से रखी हुई पतली औषधि आदि पतली चीजें हों उनको द्रव शब्द से लेते हैं; रबड़ी, मावा, वीर्यवर्धक औषधि या लड्डू इत्यादि चीजों को गरिष्ठ कहते हैं। ऐसी चीजों के सेवन से अभिषवाहार नाम दोष ल ष लगता है। ठीक न पके हुए को दुष्पक्व कहते हैं। जैसे, चावल ऊपर से पक गये हों पर भीतर का कन रहा हो तो वह दुष्पक्व कहलाएगा। इसी प्रकार एक कच्ची वनस्पति को राँधकर पकाना हो और उसे थोड़ा-सा रँधने पर ही यदि उतार लिया जाए तो उसे दुष्पक्व कहेंगे। ऐसी चीजों के खाने से सचित्तभक्षण का और प्रमाद बढ़ने का दोष लगता है। ऐसा भोजन करने से वातादि रोगों का प्रकोप भी कभी-कभी हो जाता है जिससे कि अकालमरण और धर्मविघात हो जाता है। स्वामी समन्तभद्र ने कंदमूलादिक चीजों का त्याग भी भोगोपभोग परिमाण के अन्तर्गत रखा है। क्योंकि, जो श्रावक भोगोपभोग की मर्यादा कर रहा है उसे चाहिए कि जितना जन्तुविघात कम होकर उदर निर्वाह हो सकता हो करें। __स्वामी समन्तभद्र ने मद्य, मांस व मधु का त्याग अष्ट मूल गुणों में भी कराया है और भोगोपभोगपरिमाण व्रत के समय भी कराया है। अष्टमूलगुण पंचमगुणस्थान के प्रारम्भ से भी पहले हो जाते हैं और भोगोपभोगपरिमाण का होना पंचम गुणस्थान के प्रारम्भ हो जाने पर सम्भव है, इसलिए मद्य, मांस व मधु का त्याग कब करना चाहिए? 1. कथं पुनरस्य सचित्तादिषु वृत्तिः? प्रमादसंमोहाभ्याम्। क्षुत्पिपासातुरत्वात्त्वरमाणस्य सचित्तादिषु अशनाय पानायानुलेपनाय परिधानाय वा वृत्तिर्भवति। --रा.वा. 7/35, वा. 4 2. द्रवो वृष्यं वाभिषवः । द्रवः सौवीरादिकः।-रा.वा. 7/35, वा. 5 3. असम्यक् पक्वो दुष्पक्वः।-रा.वा. 7/35, वा. 6 4. अल्पफलबहुविघातान्मूलकमार्द्राणि शृंगवेराणि। नवनीतनिम्बकुसुमं केतकमित्येवमवहेयम् ।। 85 ।। (रत्नक. श्रा.) सुक्कं तत्तं पक्कं अम्मिललवणेन मिस्सियं दव्यम्। जं जंतेण य छिण्णं तं फासुयं भणियम्॥-का. अनु. 5. मद्यमांसमधुत्यागैः सहाणुव्रतपंचकं। अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तमाः ॥ 66 ।।-रत्नक. श्रा. 6. सहतिपरिहरणार्थं क्षौद्रं पिशितं प्रमादपरिहतये। मद्यं च वर्जनीयं जिनचरणौ शरणमुपयातैः ॥ 84॥-रत्नक. श्रा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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