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________________ चतुर्थ अधिकार :: 205 को विषयों में लगाते रहना सो मनोदुष्प्रणिधान है। पाठ ठीक-ठीक न बोलना-जल्दी पूरा करना, अशुद्ध बोलना, कुछ पाठ छोड़ देना सो वचन दुष्प्रणिधान है। शरीर को स्थिर-निश्चल न करना, आसनच्युत होना, इधर-उधर सरकना सो सब कायदुष्प्रणिधान है। __मन का दुष्प्रणिधान और स्मरणानुपस्थान ये दोनों अतिचार एक से जान पड़ेंगे, परन्तु सूक्ष्मभेद अवश्य है। यह कि, प्रकरण के विषय में से कभी हट जाना और कभी उसमें लग जाना-ऐसी व्यग्रता को स्मरणानुपस्थान' कहते हैं और मनोदुष्प्रणिधान यह है कि प्रकृत विषय छोड़ देना, दूसरा कुछ भी चिन्तवन नहीं करना। यदि करने लगे तो उस प्रकृत विषय का ही करेगा, परन्तु प्रकृत विषय के सम्बन्ध से क्रोधादि कषाय उत्पन्न हो जाएँगे, यह दोनों का अन्तर है। प्रोषधोपवास व्रत के पाँच अतिचार संस्तरोत्सर्जनादानमसंदृष्टाप्रमार्जितम्। अनादरोऽनुपस्थानं स्मरणस्येति पञ्च ते॥95॥ अर्थ-(1) न देखकर तथा न झाड़पोंछ कर, विछौना काम में लाना सो एक अतिचार है। इसका नाम अप्रत्यवेक्षिता-प्रमार्जितसंस्तरोपक्रम है। (2) अर्हन्त-आचार्य की पूजा-सामग्री, गन्ध, धूप, मालादि को उठाते समय न देखना तथा झाड़-पोंछ कर प्रयोग न करना यह दूसरा एक अतिचार है। इसका नाम अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितादान है ।(3) अपने भोगोपभोग की सामग्री जो वस्त्रपात्रादि अथवा कपड़े-लत्ते आदि हों उन्हें भी उठाते समय देखभाल न करने से और झाड़-पोंछ न करने से अतिचार है। (4) सामायिकादि आवश्यक कार्यों में अनुत्साही हो जाना सो अनादर नाम अतिचार है। (5) धर्मकार्यों में चित्त स्थिर न रखना, मन को व्यग्र कर देना सो स्मृत्यनुपस्थान नाम अतिचार है। सब पाँच अतिचार हैं। ये प्रोषधोपवास करनेवाले को लगते हैं। क्षुधा से पीड़ित होने पर उत्साह घटना सम्भव है। उत्साह जब घटेगा तो साथ ही किसी चीज के धरने-उठाने में सावधानी कैसे रह सकती है? सावधान न रहने के ही ये लक्षण हैं कि बिना देखभाल किये ही इधर-उधर रख देना तथा अपने उपयोग की किसी चीज को या धर्मोपकरण की किसी वस्तु को धरते उठाते सावधानी या जीव-बाधा बचाने की तरफ लक्ष्य न रखना। देखकर तथा झाड़ पोंछकर चीज उठाने धरने से सावधानी रहती है, जीव दया पलती है, मलमूत्र के क्षेपने में भी उक्त असावधानी व्रती के हाथ से होना सम्भव है। भोगोपभोगपरिमाण व्रत के पाँच अतिचार सचित्तस्तेन सम्बन्धः तेन संमिश्रितस्तथा। दुष्पक्वोऽभिषवश्चैवमाहाराः पञ्च पञ्च ते॥6॥ अर्थ- भोगोपभोगपरिमाण नाम व्रत का श्रीसमन्तभद्र स्वामी ने ऐसा अर्थ किया है कि इन्द्रिय 1. अनैकाग्रस्मृत्यनुपस्थानं । मनोदुष्प्रणिधानं तदिति चेन्न, तत्रान्याचिन्तनात्। तत्र हि अन्यत् किंचिदचिन्तयंश्चिन्तयतो वा विषये क्रोधाद्यावेश औदासीन्येन वाऽस्थानं मनसः।-रा.वा. 7/32, वा. 4-5 2. ये सब नाम अर्थ के अनुसार रखे गये हैं और नामों का अर्थ वही है जो कि लक्षणों में लिखा गया है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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