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________________ 204 :: तत्त्वार्थसार त्याग का भी अतिचार कह सकते हैं और भोगों की गृद्धता के कारण भोगोपभोग का भी अतिचार कह सकते हैं, परन्तु ऐसी विवक्षा हो तो दो बार कहना पड़ेगा। दो बार कहने से पुनरुक्ति दोष प्राप्त होगा? और एक बार कहें तो कहाँ पर कहें? उत्तर' -पुनरुक्ति दोष यों नहीं है कि अतिचार एक-एक व्रत के अनेकों हो सकते हैं तो भी सभी अतिचार नहीं कहे जा सकते, इसीलिए प्रत्येक व्रत के मुख्य-मुख्य पाँच-पाँच अतिचार लिखे गये हैं। शेष सब ऊपर से समझ लेने चाहिए। भोगानर्थक्य अतिचार मुख्यता से तो अनर्थदंडत्याग का है और अमुख्यता से भोगोपभोगपरिमाण का भी हो सकता है। इसीलिए इसे एक अनर्थदंडव्रत के अतिचारों में लिख दिया है और भोगोपभोगपरिमाण के मुख्य अतिचार दूसरे पाँच हैं जो कि आगे लिखेंगे। सामायिकव्रत के पाँच अतिचार त्रीणि दुष्प्रणिधानानि वाङ्मनःकायकर्मणाम्। अनादरोऽनुपस्थानं स्मरणस्येति पञ्च ते।। 94॥ अर्थ-वचन, मन व काय को ठीक सावधान न रखना ये तीन अतिचार हुए, 1. वचन दुष्प्रणिधान, 2. मनोदुष्प्रणिधान, 3. कायदुष्प्रणिधान। 4. सामायिक के करने में आदर न रखना सो अनादर कहलाता है। 5. सामायिक कब करना है इस बात का स्मरण नहीं रखना सो स्मरणानुपस्थान कहलाता है। ये पाँच सामायिक के अतिचार हैं। मन, वचन तथा शरीर को सावधान रखना सामायिक का अंग तो नहीं होता, परन्त वीतराग अवस्था तथा सकल पापों का अभाव और अप्रमादीपना प्राप्त होने के लिए सामायिक व्रत स्वीकार किया जाता है उतना फल उक्त असावधानी रखने पर प्राप्त नहीं हो सकता है, इसीलिए ये तीनों दोष अतिचारों में गर्भित किये गये हैं। अनादर होने से भी यही बात होती है, इसलिए वह भी अतिचारों में माना गया है। सामायिक की विधि पूर्ण नहीं हो पाती यह हानि तो पाँचों ही अतिचारों से होना सम्भव है। सामायिक में यदि अतिचार हो सकते हैं तो इसी प्रकार के हो सकते हैं। यदि मनुष्य निरन्तर अथवा प्रतिदिन अपने नियत समय पर ध्यान करना चाहे तो वह कुछ दिन बाद प्रायः उस ध्यान के करने में प्रेम युक्त नहीं रह पाता है और न उत्साही ही रह पाता है और इसीलिए सम्भव है कि कभी वह अपने नियत समय पर ध्यान को भूल भी जाए, अथवा मन, वचन तथा शरीर को ठीक-ठीक न लगाए, परन्तु व्रत में ये बातें होने से फलप्राप्ति यथावत् नहीं होगी यह समझकर आचार्य इसमें मन्दोद्यमी न होने देने के लिए ऊपर के पाँच अतिचार-दोष दिखाते हैं। मन स्थिर न रखना, किन्तु आत्मतत्त्वादि का शुभ चिन्तवन जो करना चाहिए वह न करके मन 1. "उपभोगपरिभोगव्रतऽन्तर्भावात् पौनरुक्त्यप्रसंग इति चेन्न, तदर्थानवधारणात्। इच्छावशादुपभोगपरिभोगपरिमाणावग्रह: सावधप्रत्याख्यानं चेति तदुक्तम्। इह पुनः कल्प्यस्यैव आधिक्यमित्यतिक्रम इत्युच्यते। नन्वेवमपि तद्वतातीचारान्तर्भावादिं वचनमनर्थकम्। सचित्ताद्यतिक्रमवचनात्।" यह जो राजवार्तिक (7/32) में लिखा है उसका भी प्राय: ऊपर जैसा ही अभिप्राय है। 2. दुष्ठु प्रणिधानमन्यथा वादिदुष्प्रणिधानम्।-रा.वा. 7/33 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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