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________________ चतुर्थ अधिकार :: 203 हैं। इन क्रियाओं के करने पर भी स्वयं मर्यादा का अतिक्रम नहीं होता तो भी दूसरों से अतिक्रम कराना भी अतिक्रम ही है । अर्थात् यहाँ कारितपने के सम्बन्ध से अतिचार दोष आता है। ये पाँचों अतिचार स्थूल से सूक्ष्म की ओर लगाये जाते हैं, जैसे- देशव्रत में किसी ने दूसरे ग्राम न जाने का व्रत लिया, लेकिन उस दूसरे ग्राम से किसी वस्तु को लाने का प्रसंग आ गया, तब उस ग्राम से आनेवाले व्यक्ति को या इस गाँव से, उस गाँव जानेवाले के साथ सन्देश भेजकर वस्तु मँगवाना आनयन है। प्रेष्यप्रयोग में, यहाँ से ही किसी व्यक्ति द्वारा त्यागे हुए स्थान पर वस्तु भेजना है। अपनी गृह-गली की मर्यादा करने के बाद शब्दानुपात, रूपानुपात, पुद्गलक्षेप करके काम करवाना इस प्रकार ये तीन अतिचार हैं। अनर्थदंड विरतव्रत के पाँच अतिचार असमीक्ष्याधिकरणं' भोगानर्थक्यमेव च । तथा कन्दर्प- कौत्कुच्य- मौखर्याणि च पञ्च ते ॥ 93 ॥ अर्थ – (1) आवश्यकता की तरफ ध्यान नहीं देना, किन्तु योंही कुछ कार्य करते जाना और वह भी खूब करना सो असमीक्ष्याधिकरण' है । जैसे, किसी की बुराई का विचार करना, परपीड़ाकारी निष्प्रयोजन कुछ भी बोलना, चलते-चलते, छोटे-छोटे वनस्पति तोड़ते जाना, बैठे-बैठे तोड़ते रहना इत्यादि । (2) भोगोपभोगों की जितनी सामग्री चाहिए उससे अधिक सामग्री इकट्ठी करना सो भोगोपभोगानर्थक्य' कहलाता है। (3) रागवश होकर हँसी के साथ भण्ड वचन बोलना सो कंदर्प कहलाता है। (4) मुख से तो हँसी करते हुए भण्ड वचन बोलना और शरीर से कुचेष्टा करके दिखाना सो कौत्कुच्य है । (5) ढीठ होकर खूब बोलना और कुछ भी बोलना सो मौखर्य है । ये पाँच अनर्थदंड त्याग व्रत के अतिचार हैं। यदि कुछ भी प्रयोजन सिद्ध करना न हो और पापारम्भ का बढ़ाने वाला हो तो उस कार्य को अनर्थदंड ही कहेंगे, परन्तु रागद्वेष की पुष्टि और मन का कुछ सन्तोष ऊपर की पाँचों बातों से होना सम्भव है और इस पर भी ये पाँचों कार्य अधिक हानि नहीं करते, इसलिए इन्हें अतिचारों में कहा है। देखो, जिस प्रकार पापोपदेश की प्रवृत्ति करने से जीव पाप का भागी बनता है अथवा हिंसा के साधनों की सहायता करने से हिंसापाप का भागी हो सकता है, उतना कंदर्पादि वचन बोलने से अथवा असमीक्ष्यकारी बनने से तीव्र पापभागी नहीं होता । शंका- भोगोपभोगानर्थक्य जो अनर्थदंड त्याग का अतिचार लिखा है वह अनर्थदंड त्याग का नहीं हो सकता, किन्तु भोगोपभोग परिमाण का अतिचार हो सकता है अथवा प्रयोजन मन्द समझकर अनर्थदंड 1. ' असमीक्ष्य' शब्द का 'अधिकरण' शब्द के साथ साधारण कोई समास नहीं बन सकता और एक पद बनाना अवश्य है। इसलिए 'सुप्सुपा' या 'मयूरव्यंसकादयश्च' इस विशेष वचन से समास का निर्वाह होगा ऐसा राजवार्तिककार ने लिखा है। 2. असमीक्ष्य प्रयोजनमाधिक्येन करणमधिकरणम् । तत् त्रेधा कायवाङ्मनोविषयभेदात् । - रा. वा. 7/32 3. यावतार्थेनोपभोगपरिभोगौ सोऽर्थः । ततोऽन्यस्याकिकयमानर्थक्यम् । - रा. वा. 7/32 4. रागोद्रेकात् प्रहासमि श्रोऽशिष्टवाक्प्रयोगः कन्दर्प: । - रा. वा. 7/32 5. रागस्य समावेशाद्धास्यवचनमशिष्टवचनमित्येतदुभयं परत्र दुष्टेन कायकर्मणा युक्तं कौत्कुच्यम् । - रा. वा. 7/32 6. अशालीनतया यत्किंचनानर्थकं बहुप्रलापनं मौखर्यम् । - रा. वा. 7/32 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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