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________________ 200 :: तत्त्वार्थसार इत्वरिका' गमन, (5) परविवाहकरण ये पाँच स्वदारसन्तोष के अथवा ब्रह्मचर्य अणुव्रत के अतिचार हैं। योनि तथा जननेन्द्रिय का जो सम्भोग होता है वह उचित स्थान के सिवाय अन्यत्र भी करना तथा कुचेष्टा करना सो सब अनंगक्रीडा है। कामभोगों की निरन्तर इच्छा रखना, उत्कट वासना रखना, सो काम की तीव्र वासना या कामतीव्राभिनिवेश कहलाता है। व्यभिचारिणी स्त्री को इत्वरिका कहते हैं। जो किसी की व्याही स्त्री हो उसे परिगृहीता कहते हैं। परिगृहीत व्यभिचारिणी स्त्री के साथ सम्बन्ध रखने को परिगृहीत-इत्वरिकागमन कहते हैं। किसी ने जिसे रखा भी न हो और जो किसी को व्याही भी न हो उसके साथ सम्बन्ध रखने को अगृहीत-इत्वरिकागमन कहते हैं। दूसरों के लड़के-लड़कियों का व्याह कराना सो परविवाहकरण है। ___ इसी प्रकार अनंगक्रीडा आदि जो चार अतिचार हैं वे भी तभी हो सकते हैं जब कि कामभोगों की लालसा अतिप्रबल हो जाती है, इसीलिए वे भी अतिचार-दोष हैं। गुरुपत्नी, साध्वी, तिर्यचिनी इत्यादिकों में जो प्रवृत्ति होती है वह भी कामतीव्राभिनिवेश का ही एक प्रकार है। परिग्रह-परिमाण-अणुव्रत के पाँच अतिचार हिरण्यस्वर्णयोः क्षेत्र-वास्तुनोर्धनधान्ययोः। दासीदासस्य कुप्यस्य मानाधिक्यानि पञ्च ते ॥१०॥ अर्थ-सोने, चाँदी आदि के सिक्कों को हिरण्य कहते हैं। स्वर्ण अर्थात् सोना। यहाँ उपलक्षण मानना चाहिए और उसका अर्थ 'सोना, चाँदी, जवाहरात' करना चाहिए। क्षेत्र अर्थात् खेत, वास्तु यानी 1. परपुरुषानेति गच्छतीतीत्वरी। ततः कुत्सायां कः। इत्वारिका। या गणिकात्वेन पुंश्चलीत्वेन वा परपुरुषगमनशीला अस्वामिका सा अपरिगृहीता। या पुनरेकपुरुषर्भतृका सा परिगृहीता।-रा.वा. 7/28, वा. 2 2. मूल ग्रन्थ में जो गमन शब्द है उसका अर्थ हमने सम्बन्ध रखना किया है। गमन का अर्थ कार्तिकेयानुप्रेक्षा की टीका में तथा श्रुतसागरी तत्त्वार्थटीका में ऐसा ही लिखा है, परन्तु पण्डित आशाधर के सागारधर्मामृत में गमन का अर्थ सम्भोग करना लिखा है। कोशों में भी गमन का अर्थ सम्भोग करना होता है, परन्तु सम्भोग करना अतिचार नहीं है वह अनाचार या व्रतभंग हैयह शंका होना यहाँ सम्भव है। पं. आशाधर ने इस शंका का उत्तर देने के लिए लोकदृष्टि से भंग व परमार्थ दृष्टि से अभंग बताकर अतिचारपना ठहराया है। 3. दीक्षितातिबालतैर्यग्यान्यादीनामनुपसंग्रह इति चेन्न, कामतीव्राभिनिवेशग्रहणात्सिद्धेः। दीक्षितादिषु परिहर्तव्यासु वृत्तिः कामतीव्राभिनिवेशाद्भवति। उक्तोऽत्र दोषो राजभयलोकापवादादिः । (रा.वा. 7/28, वा. 5) अर्थात्, दीक्षितादिकों में प्रवृत्ति होना कामतीव्राभिनिवेश में गर्भित करना चाहिए। इससे यह सिद्ध हुआ कि इत्वरिकागमन और दीक्षितादिकों में प्रवृत्ति होना-ये दोनों जुदे-जुदे कर्म हैं और उक्त प्रवृत्ति तथा गमन शब्द के अर्थ सम्भोग करना भी सम्भव है। इनमें स्वकीयपना कथंचित् सम्भव है; क्योंकि, ये किसी की नियोगिनी नहीं होती। इसीलिए इनके साथ प्रवृत्ति या सम्भोग करने से अतिचार दोष लगता है। व्रतभंग या अनाचार का दोष तब लगता है जब कि पति जीवित रहते हुए उस पति की नियोगिनी स्त्री के साथ सम्भोग किया जाये। अतिचारों से भी व्रत मलिन होता है और मलिन व्रत भवसमुद्र का निस्तारक नहीं हो सकता। 4. हिरण्यं-रूप्यादिव्यवहारतन्त्रम् । सुवर्णं-प्रतीतम्। क्षेत्रं-सस्याधिकरणम् । वास्तु-अगारम्। धनं, गवादि, धान्यं ब्रीह्यादि। कुप्यं क्षौमकासकौशेयचन्दनादि । तीव्रलोभाभिनिवेशादातिरेकाः प्रमाणातिक्रमाः। (रा.वा. 7/29, वा. 1) धनधान्यादि ग्रन्थं परिमाय ततोऽधिकेषु निस्पृहता। परिमितपरिग्रहस्यादिच्छापरिमाणनामापि॥61 ॥ रत्नक, श्रा. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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