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________________ चतुर्थ अधिकार :: 201 घर। धन का अर्थ गाय, भैंस इत्यादि पशु। धान्य अर्थात् गेहूँ, चना इत्यादि अनाज। दासीदास-सेवक। कपास, रेशम, चंदन, ऊन तथा किराने की चीजों को कुप्य कहते हैं। (1) हिरण्यसुवर्ण, (2) क्षेत्रवास्तु, (3) धनधान्य, (4) दासीदास, (5) कुप्य ये पाँच ही मुख्य परिग्रह के भेद हैं। इनका जितना-जितना परिमाण हो वह बढ़ाकर यदि अधिक परिमाण फिर से किया जाए तो पाँच अतिचार हो जाते हैं। यहाँ तक पाँच अणुव्रतों के अतिचार हुए। अब आगे सात शीलों के तथा सल्लेखनाव्रत के अतिचार लिखते हैं। दिग्विरतव्रत के पाँच अतिचार तिर्यग्व्यतिक्रमस्तद्वदध-ऊर्ध्वव्यतिक्रमौ। तथा स्मृत्यन्तराधानं क्षेत्रवृद्धिश्च पञ्च ते॥91॥ अर्थ-दसों दिशाओं में गमनागमन की मर्यादा निश्चित करने का नाम दिग्विरतव्रत है। दस दिशाओं के तीन स्थूल भेद होते हैं—नीचाई, ऊँचाई और इधर-उधर तिरछापन। इन तीनों सीमाओं का उल्लंघन करने से तीन अतिचार हो जाते हैं। (1) नीचे की तरफ गमनागमन की जहाँ तक सीमा की गयी हो वहाँ से अधिक नीचे चले जाने सो अधोऽतिक्रम है। (2) ऊपर की सीमा उल्लंघन से ऊर्ध्वातिक्रम होता है। (3) पूर्वादि दिशाओं की सीमा उलंघने से तिर्यग्व्यतिक्रम' कहा जाता है। ऊपर के तीनों व्यतिक्रम तब कहलाते हैं जबकि किसी एक-दो समय ऐसा भूल से हो जाए या तीव्र कषायवश हो जाए, परन्तु प्रमाण सदा के लिए पूर्ववत् कायम रखा जाए। (4) यदि सदा के लिए प्रमाण बढ़ा लिया जाए तो उसे क्षेत्रवृद्धि चौथा अतिचार कहते हैं। (5) इस विषय में पाँचवाँ एक अतिचार यह है कि सीमाओं का स्मरण ठीक-ठीक न रखना। दिग्विरतव्रत के ये पाँच अतिचार हुए। इन दोनों धनधान्यादि परिग्रहों का प्रमाण करके छोड़े हुए अधिक विषयों से निस्पृह रहना सो परिग्रहपरिमाण अणुव्रत कहलाता है। इसी को इच्छा परिमाण भी कहते हैं। समन्तभद्र स्वामी ने अपने रत्नकरण्ड नाम उपासकाध्ययन में परिग्रहत्याग का अणुस्वरूप जिस प्रकार लिखा है व्रतों का अणुस्वरूप इस ग्रन्थ में उतना स्पष्ट नहीं दिया गया है। इसके अतिचार भी रत्नकरण्ड में यहाँ से दूसरी तरह ही लिखे हैं। अतिवाहनातिसंग्रहविस्मयलोभातिभारवहनानि। परिमितपरिग्रहस्य च विक्षेपाः पंच कथ्यन्ते ।।62 ॥ अर्थ(1) आवश्यकता से अधिक वाहन रखना, (2) अतिसंग्रह करना, (3) सम्पत्ति देखकर विस्मय मानना, (4) सम्पत्ति में लुब्धता रखना, (5) अधिक बोझ लादना ये पाँच परिग्रहपरिमाण व्रत के अतिचार हैं। ऊपर के अतिचार और इन अतिचारों में अन्तर है। ऊपर तो परिग्रहों के प्रमाण की मर्यादा बढ़ा लेने को अतिचार कहा है और यहाँ परिग्रहों में आसक्ति रखने को अतिचार कहा है। 1. 'विलप्रवेशादेस्तिर्यगतीचारः' (रा.वा., 7/30, वा. 4) अर्थात् विलप्रवेशादि करने से तिर्यग्व्यतिक्रम होता है ऐसा राजवार्तिककार लिखते हैं, परन्तु इसका अर्थ कुछ लोग ऐसा करते हैं कि ऊपर नीचे तथा पूर्वादि दशाओं में सीधा न जाकर तिरछा चलना सो तिर्यग्व्यतिक्रम है परन्तु तिर्यग् शब्द का यह अर्थ लेना भूल है। जैसे तिर्यक् सामान्य का अर्थ तिरछा सामान्य ऐसा नहीं होता, किन्तु इधर-उधर ऐसा होता है वैसे ही यहाँ भी तिर्यक् शब्द का अर्थ इधर-उधर ऐसा लेना ठीक है। नहीं तो पूर्वादि दिशाओं के उल्लंघन को एक जुदा अतिचार कहना पड़ेगा। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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