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अचौर्याणुव्रत के पाँच अतिचार
स्तेनाहृतस्य ग्रहणं तथा स्तेन प्रयोजनम् । व्यवहारः प्रतिच्छन्दो मानोन्मानोनवृद्धता' ॥ 87 ॥ अतिक्रमे विरुद्धे च राज्ये सन्तीति पञ्च ते ।
अर्थ ' - (1) चोरी करके जो द्रव्य किसी ने लाकर बेचना चाहा तो उसे ले लेना यह स्तेनाहृतादान' कहलाता है। ऐसा करना दूसरों के लिए दुःखदायक है और इससे राजदंड का भय रहता है, इसलिए यह अतिचार है । (2) चोरी करनेवालों को चोरी में लगाना, लगाने का प्रयत्न करना, चोरी करने में कोई लग जाए तो प्रसन्न होना, इस सबको स्तेनप्रयोग' कहते हैं । (3) व्यापार में ठगी करना अथवा नकली चीजें असली कहकर बेचना - ऐसे कामों को व्यवहारप्रतिच्छन्द या प्रतिरूपव्यवहार कहते हैं । (4) किलो- बाँट - तराजू आदि वजन की चीजों को मान कहते हैं । लीटर - गज-मीटर आदि चीजों को उन्मान कहते हैं। ये चीजें ठीक न रखना, किन्तु दूसरों से माल लेने के लिए अधिक रखना और दूसरों को अपना माल बेचने के लिए कम रखना - ऐसे कार्य को मानोन्मानहीनाधिकता या हीनाधिकमानोन्मान कहते हैं । (5) राजाज्ञा का जिसमें उल्लंघन होता हो ऐसे प्रकार से बहुमूल्य चीजों को अल्पमूल्य में खरीदने की इच्छा रखना, प्रयत्न करना सो सब विरुद्धराज्यातिक्रम नाम का पाँचवाँ अतिचार है।
अचौर्याणुव्रत के ये पाँच अतिचार हैं। इनको लोग चोरी नहीं कहते, इसलिए तो व्रतभंग नहीं माना जाता और तो भी चोरी की तरह ये पाँचों प्रकार के फायदे जिसके द्रव्य से होते हैं उसे न बता कर होते हैं । यदि द्रव्य का स्वामी ये बातें समझ ले तो वह ठगी मान लेता है, इसलिए ये पाँचों कार्य चोरी के अंग माने गये हैं। अतिचार भी पाप के अवयवों को कहते हैं । पाप का पूर्ण सेवन हो वह अनाचार कहलाता है।
स्वदारसन्तोष - अणुव्रत के पाँच अतिचार
चतुर्थ अधिकार :: 199
अनंगक्रीडितं तीव्रोऽभिनिवेशो मनोभुवः ॥ 88 ॥ इत्वर्योर्गमनं चैव संगृहीतागृहीतयोः ।
तथा परविवाहस्य करणं चेति पञ्च ते ॥ 89 ॥
अर्थ - (1) अनंगक्रीडा, (2) काम की तीव्रवासना, (3) परिगृहीत- इत्वरिकागमन, (4) अगृहीत
1. 'व्यवहार प्रतिच्छन्दै: ' ऐसा मूल मुद्रित पुस्तक में पाठ था, परन्तु हमने 'व्यवहार प्रतिच्छन्दो मानोन्मानोनवृद्धता' ऐसा ऊपर का पाठ ठीक समझा है। क्योंकि, प्रतिरूप का व्यवहार की जगह यह पाठ होना चाहिए ।
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2. चोरानीतमग्रहणं तदाहृतादानम् । - रा. वा. 7/27
3. मोषकस्य त्रिधा प्रयोजनं स्तेनप्रयोगः । मुष्णन्तं स्वयमेव वा प्रयुङ्क्ते अन्येन प्रयोजयति प्रयुक्तमनुमन्यते वा यतः स्तेनप्रयोगः । - वही 4. कृत्रिमहिरण्यादिकरणं प्रतिरूपक व्यवहारः । - वही
5. कूटप्रस्थतुलादिभिः क्रयविक्रयप्रयोगो हीनाधिकमानोन्मानः । - वही
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