________________
198 :: तत्त्वार्थसार
या छेदना, 4. सम्भव या न्याय से जितना ठहर चुका हो उतने से अधिक बोझ लादना यानी गुरुभारारोपण, और 5. भोजन-पानी समय पर न देना अर्थात् अन्नपाननिषेध—ये पाँच अहिंसाव्रत के अतिचार-दोष' हैं। सत्याणुव्रत के पाँच अतिचार
कूटलेखो रहोभ्याख्या न्यासापहरणं तथा।
मिथ्योपदेश-साकारमन्त्रभेदौ च पञ्च ते॥86॥ अर्थ-(1) जो बात जिसने नहीं कहीं हो, वह बात उसने कही ऐसा ठगने के लिए लिखना सो कूटलेख है। दूसरे का हस्ताक्षर लेख बनाकर ठगना-कूट लेख का यह भी अर्थ किया गया है। (2) स्त्री, पुरुषों की एकान्त में की गयी परस्पर की काम-चेष्टाओं को प्रकाशित करना रहोभ्याख्यान कहलाता है। (3) धन-सम्पत्ति किसी ने आपके पास रखी हो और फिर जितनी रखी थी उससे कम का तकाजा करें तो वह माँगने वाला तो बेचारा भूल गया है, परन्तु आप जान-बूझकर भी यह कहना कि जितना तुम्हें याद हो उतना ले जाओ-इसको न्यासापहार कहते हैं। (4) मिथ्या मार्ग का उपदेश देना सो मिथ्योपदेश कहलाता है। (5) किसी ने जो छिपकर बातचीत की हो उसे उसकी किसी चेष्टा से समझकर प्रकाशित कर देना, सो साकारमन्त्र भेद कहलाता है। ये पाँच सत्याणुव्रत में आनेवाले अतिचार हैं।
न्यासापहार से यह शंका होगी कि यह अतिचार सत्यव्रत का न होकर अचौर्यव्रत का होना चाहिए? इसका उत्तर–यहाँ वचन बोलने से दूसरे का अहित होता है, इसलिए यह सत्यव्रत का अतिचार है। कूटलेख यद्यपि वचन नहीं है तो भी वचन की आकृति है और लोग भी इसे शब्द या वचन ही कहते हैं, इसलिए यह कूटलेख भी सत्यव्रत का ही अतिचार है। रहोभ्याख्यान तथा साकारमन्त्र भेद इन दोनों को लोग दंडयोग्य असत्य नहीं ठहरा सकते हैं तो भी ऐसे वचनों से प्राण पीड़े ही जाते हैं, इसलिए ये भी अतिचार हैं। मिथ्योपदेश से भी व्यवहार की व्यक्त हानि नहीं कही जा सकती, परन्तु वास्तव में बहुत बड़ी हानि होती है, इसलिए यह अतिचार है।
1. पंडित आशाधर ने इस पर लिखा है कि गवाद्यै नैष्ठिको वृत्तिं त्यजेबंधादिना विना ॥ भोग्यान्वा तानुपेयात्तं योजयेद्वा न निर्दयम् ।।16 ॥
अ. 41 उत्तम नैष्ठिक श्रावक का यह काम है कि वह वधबन्धादि दोषरहित अहिंसाव्रत पालने की इच्छा से गाय आदि पशुओं को रखे ही नहीं। काम न चलता दिखते तो वह अवश्य रखेगा, परन्तु उतने ही रखने चाहिए जितने से भोगोपभोग का काम चल जाए, परन्तु यह मध्यम श्रावक की वृत्ति कही जाएगी। रखे तो चाहे जिस काम के लिए, परन्तु वधबन्धादि न होने देने की सँभाल करें और निर्दयता से उससे काम न लें। ऐसा करनेवाला वधबन्धादि दोष दूर कर सकता है, परन्तु कृत, कारित, अनुमति द्वारा पूर्ण रक्षा नहीं कर सकता, इसलिए मन मलिन रहेगा और पक्ष अधम ठहरेगा, परन्तु अतिचार तो भी दूर हो सकते हैं यह ध्यान रहे। अतिचारों को अवश्य टालना चाहिए, क्योंकि सातिचार व्रत कभी वास्तविक फल नहीं दे सकते। देखोव्रतानि पुण्या न भवंति जंतोर्न सातिचाराणि निषेवितानि। सस्यानि किं क्वापि फलंति लोके मलोपलीढानि कदाचनापि॥ शंका-अतिचार यदि पापों में गर्भित हैं तो पाप के त्याग को जो व्रत कहते हैं उन व्रतों की संख्या नहीं हो सकेगी। यदि अतिचार हिंसादि पापों में गर्भित नहीं हैं तो क्यों छोड़ने चाहिए? उत्तर-विशुद्ध अहिंसादिव्रतों में अतिचार नहीं रहते इसलिए छोड़ने योग्य तो हैं ही और अलग-अलग ये पाप नहीं, किन्तु एकदेश मूलपापों में ही गर्भित होते हैं, इसलिए इनके त्याग से भी व्रतों
की संख्या बढ़ती नहीं है। 2. हँसी ठट्ठा समझकर करें तो यह अतिचार होगा। यदि कामवासना के वश करें तो व्रतभंग का दोष आ सकता है। 3. मन्त्रभेदः परीवाद: पैशुन्यं कूटलेखनम्। मुधासाक्षिपदोक्तिश्च सत्यस्यैते विघातकाः॥ यशस्तिलक में सप्तमाश्वास के 28 वें कल्प
में ये पाँच सत्यातिचार बताये हैं।
Jain Educationa International
For Personal and Private Use Only
www.jainelibrary.org