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________________ चतुर्थ अधिकार :: 195 उन अनिष्ट वस्तुओं को छोड़ना चाहिए। (5) जिनका सेवन उत्तम पुरुष बुरा समझें वे लोकनिंद्य पदार्थ छोड़ने चाहिए। पाँच प्रकार के विषय छोड़ने से सभी भोगोपभोग का परिमाण हो जाता है। एक बार भोगने योग्य विषय को भोग कहते हैं जैसे भोजन। बार-बार भोगने की चीजों की उपभोग कहते हैं। जैसे घर, वाहन, वस्त्रादि। यह भोगोपभोगपरिमाणव्रत शक्ति हो तो यावज्जीवन ग्रहण करना चाहिए। यदि शक्ति न हो तो कुछ-कुछ समय के लिए ग्रहण किया जा सकता है। किसी-किसी ग्रन्थ में भोगोपभोग शब्द मिलता है और कहीं-कहीं उपभोग-परिभोग शब्द मिलता है, परन्तु अर्थ 'एक बार व अनेक बार भोगयोग्य' यही करना चाहिए। कहीं पर भोगोपभोगपरिमाण यह शब्द व्रत के लिए आता है और कहीं भोगोपभोगपरिसंख्यान यह शब्द आता है। 7. अतिथिसंविभाग व्रत अतिथिसंविभाग व्रत उसे कहते हैं कि अतिथियों को उपयोगी पड़नेवाली चीजें उन्हें दी जाएँ। जिसके आने का तिथि-समय नियत न हो वह अतिथि है। अतिथि, साधु-संन्यासियों को कहते हैं। उनके लिए उपयोगी वस्तुओं को देते रहना चाहिए। उनको देने योग्य चीजें चार हैं; 1. भिक्षा, 2. कमण्डलुपिच्छी आदि उपकरण, 3. औषध, 4. वसतिका आदि स्थान । मुनियों को दूसरे प्रकार की चीजें लगती ही नहीं हैं, इसलिए दान की वस्तुओं के उक्त चार ही भेद किये गये हैं। सल्लेखना व्रत अपरं च व्रतं तेषामपश्चिममिहेष्यते। अन्ते सल्लेखनादेव्याः प्रीत्या संसेवनं च यत्॥ 82॥ अर्थ-बारह व्रतों के अतिरिक्त एक और भी अनुपम व्रत है। वह कौन-सा? मरण के अन्त में सल्लेखनादेवी की प्रीतिपूर्वक सेवा करना यही व्रत है, यह भी गृहस्थों का मुख्य व्रत है। 1. न ह्यसत्यभिसंधिनियमे व्रतमिति, इष्टानामपि चित्रवस्रनिकृतवेषभरणादिनामनुपसेव्यानां परित्याग: कार्यो यावज्जीवं । अथ न शक्तिरस्ति कालपरिच्छेदेन वस्तुपरिमाणेन च शक्त्यनुरूपं निवर्तनं कार्य।-रा.वा. 7/21, वा. 27 2. ज्ञानादिसिद्ध्यर्थतनुस्थितयर्थान्नाय यः स्वयं। यत्नेनातति गेहं वा न तिथिर्यस्य सोऽतिथि: 142 ॥ अ. 5 सागारध. । 3. अतिथिसंविभागश्चतुर्विधो भिक्षोपकरणौषधप्रतिश्रयभेदात्।-रा.वा. 7/21, वा. 28 । वैयावृत्त्य शब्द का मुख्य शब्दार्थ तो यह होता है कि किसी के कष्ट को दूर करना परन्तु लक्षण से यह अर्थ सिद्ध होता है कि साधुओं को दान देकर तथा और भी अनेक प्रकार की सेवा करके उनके धर्म साधने में सहायता करना। अतिथिसंविभाग तथा वैयावृत्य का मुख्य अर्थ साधुओं को दान देना है। यह अर्थ दोनों का एक ही है। परन्तु श्रावकाचारों में से केवल सागारधर्मामृत में अतिथिसंविभाग शब्द लिखा गया है और बाकी बहुत से श्रावकाचारों में वैयावृत्य शब्द ही आता है। समन्तभद्रस्वामी ने इस वैयावृत्य के ही भेदों में देवपूजा को भी बताया है। तत्त्वार्थसूत्र तथा तत्त्वार्थसार ग्रन्थों में और तत्त्वार्थसूत्र के टीका ग्रन्थों में देवपूजा का समावेश बारह व्रतों में से कहीं पर भी नहीं किया तो भी दान के भेदों में ले लेने से संग्रह हो सकता है। समन्तभद्रस्वामी ने अपने चतुर्विंशतिस्तोत्र में भी जिनपूजा का उल्लेख किया है। देखो'पूज्यं जिनं त्वार्चयतो जनस्य सावद्यलेशो बहुपुण्यराशौ । दोषाय नालं कणिका विषस्य न दूषिका शीतशिवाम्बुराशौ ॥ ॥' स्वयंभू स्तोत्र इतना ही नहीं, यह भी लिखा है कि अध्यात्मवृत्ति साधु भी पूजा कर सकता है परन्तु उसके पास द्रव्य नहीं और वह आरम्भ नहीं कर सकता इसलिए वह भाव पूजा करे 'दाणं पूजा मुक्खो सावयधम्मो' ऐसे वचन भी मिलते हैं। इससे दान-पूजा श्रावक का ही मुख्य धर्म है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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