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194 :: तत्त्वार्थसार
__ आहार के चार भेद हैं-अशन', स्वाद्य, खाद्य और पेय। कहीं-कहीं खाद्य, स्वाद्य, लेह्य और पेयये चार नाम मिलते हैं तथा कहीं पर अन्न, पान, खाद्य, लेह्य ये चार नाम भी दिख पड़ते हैं। ये चारों ही आहार उपवास करने वाले को छोड़ने चाहिए।
इसका फल उन्माद न बढ़ना, इन्द्रियदर्प न होना, आत्मभावना करने में सावधानी रखना है। यह
सामायिक व्रत स्वीकारने वाले के लिए आगे चलने पर स्वीकार करना पड़ता है। इसे प्रतिमाओं के अनसार चतर्थ प्रतिमा कहते हैं। उसको यह प्रोषधोपवास प्रति अष्टमी व चतुर्दशी को करना आवश्यक है और जो साधन अभ्यास के लिए करता है उसके लिए कोई नियम नहीं है।
आहार का जैसा त्याग करें वैसा ही अलंकार', सुगन्ध, पुष्प और सब प्रकार के आरम्भ का भी त्याग करना ही चाहिए। स्नान, अंजन, नस्य अर्थात् तमाखू, हुलास ऐसी चीजों को भी छोड़ना चाहिए, यह उपवास विधि है। उपवास करनेवाला श्रावक अपना सारा समय धर्मध्यान में तो बिताए ही, परन्तु जब एकाकी रहना न हो सके तब दूसरे श्रावकों को धर्मामृत का उपदेश दे तथा दूसरों से आप सुने। उपवास के समय को आलस्य से नहीं बिताना चाहिए।'
प्रोषधोपवास में जो उपवास शब्द है उसका अर्थ आहार-त्याग है। प्रोषध का अर्थ एक बार भोजन करना है। प्रोषधोपवास का जिस दिन आरम्भ होता है उस दिन भोजन किया जाता है और दूसरे दिन आहार का त्यागकर उपवास से रहना होता है और फिर तीसरे दिन भी एक बार भोजन किया जाता है, इसलिए इसे प्रोषधोपवास' कहते हैं। यह पूर्ण उपवास का व्रत हुआ। 6. भोगोपभोगपरिमाण व्रत
त्रसघात, प्रमाद, बहुघात, अनिष्ट, अनुपसेव्य-ये भोगोपभोग परिमाण के समय पाँच विषय छोड़े जाते हैं। (1) मधु, मांस ये त्रसघात के स्थान हैं, इसलिए इन्हें सर्वथा छोड़ना चाहिए। (2) मद्य के सेवन से कार्याकार्य विवेक नहीं रहता, इसलिए प्रमाद छूटने के लिए मद्य का त्याग करना चाहिए। (3) केतकी, अर्जुन पुष्प, कंदमूल इत्यादि चीजों के खाने से जीव बहुत से घाते जाते हैं, इसलिए इन्हें छोड़ना चाहिए। (4) जितने से काम चल सकता है उसके अतिरिक्त जितनी वस्तु हों वे सभी अनिष्ट कहलाती हैं, इसलिए
1. प्रथम व दूसरे बार जो नाम लिखे हैं, वे आशाधर के सागारधर्मामृत में हैं। पंचमाध्याय के 34वें श्लोक में तथा चतुर्थाध्याय के
24 वे श्लोक में यह जिक्र है। 2. पंचानां पापानामलंक्रियारंभगन्धपुष्पाणाम्। स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात्07॥ रत्नक. श्रा. 3. धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां पाययेद्वान्यान्। ज्ञानध्यानपरो वा भवतूपवसन्नतन्द्रलुः 108 ॥ रत्नक. श्रा. 4. चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । स प्रोषधापवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति 109 ॥ रत्नक. श्रा. 5. उपवासाक्षमैः कार्योऽनुपवासस्तदक्षमैः। आचाम्लनिर्विकृत्यादि शक्त्यादि श्रेयसे तप:15 ॥ सा.ध. 5.35
अर्थ-जो ऊपर लिखा उपवास कर सकते हैं वे वह करें, परन्तु जो उतना नहीं कर सकते उन्हें चाहिए कि वे जल लेकर बाकी सर्व आहार का त्याग करें। यह मध्यम उपवास है। इतनी भी शक्ति न हो तो आचाम्लादि भोजन करें। आचाम्ल का अर्थ कांजी से मिलाकर भात का खाना। ऐसा ही एक निर्विकृति नाम भोजन भी किया जा सकता है। दूध, दही, घृत इत्यादि रस छोड़कर नीरस भोजन का नाम निर्विकृति है। यह जघन्य उपवास है। उसकी शक्ति न हो तो एक बार भोजन करें। ऐसा क्यों करें? इसलिए
कि शक्त्यनुसार करने से ही तप कहलाता है। 'शक्तितस्तपः' यह आर्ष वचन है। 6. तत्र मधुमांसं सदा परिहर्तव्यं त्रसघातं प्रति निर्वृत्तचेतसा।
मद्यमुपसेव्यमान कार्याकार्यविवेक-संमोहकरमिति तद्वर्जनं प्रमादपरिहाराय। केतार्जुनपुष्पादीनि बहुजन्तुयोनिस्थानानि, शृंगवेरमूलकार्द्रादीनि अनन्तकायव्यपदेशार्हाणि। एतेषामुपसेवने बहुघातोऽल्पफलमिति तत्परिहार: श्रेयान्। यानवाहनाभरणादिषु एतावदेवेष्टमतोन्यदनिष्टत्यनिष्टान्निवर्तनं कर्तव्यम्। रा.वा. 7/21, वा. 27
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