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________________ चतुर्थ अधिकार :: 193 अपने केश सँभालकर बाँध लेना चाहिए, आस-पास से कपड़े सँभाल लेना चाहिए, पालथी बना लेना चाहिए, स्थान निश्चित कर लेना चाहिए, यह एकाग्र बैठने की पद्धति' है। इस प्रकार किसी शान्त चैत्यालय में या गुफा में या निर्जन वन-प्रदेश में बैठकर चिन्तवन करें, कर्मों से रहित, स्वतन्त्र मुक्ति प्राप्त करने के कारणों का चिन्तवन करें और निश्चय करें कि आत्मादि तत्त्वों का यही निश्चित स्वरूप है, ये ही दर्शन, ज्ञान, चारित्र मुक्ति के अंग हैं। इस प्रकार चिन्तवन करते काल की अवधि पूर्ण करें। सामायिक साधनाभ्यास की अपेक्षा तो यह सभी श्रावकों को करना चाहिए, परन्तु तीसरी प्रतिमा से लेकर अवश्य करना ही चाहिए। उन व्रतियों को तीनों सन्ध्या करना चाहिए और बाकी श्रावक प्रात:काल तथा सन्ध्याकाल में करते हैं। सामायिक के साथ प्रतिक्रमणादि पाँच क्रिया जोड़ने से षडावश्यक-कर्म हो जाते हैं। प्रतिदिवस सामायिक या षडावश्यक क्रिया करते रहने से पाँच अणुव्रत शुद्ध बने रहते हैं और कभी भूलकर भी पाप में मन लग गया हो तो वह हट जाता है। शिक्षाव्रतों का प्रयोजन ही यह है कि पाँच अणव्रतों को न बिगड़ने देने की शिक्षा मिलती रहे। सामायिकादि चार व्रतों को शिक्षाव्रत कहते हैं। दिग्व्रतादि तीन व्रतों को गुणव्रत कहते हैं। गुणव्रत का अर्थ मूल गुण या पाँचव्रतों की वृद्धि होने के कारण ऐसा होता है। दिग्व्रत, अनर्थदंडव्रत, भोगोपभोगपरिमाण ये तीन गुणव्रत हैं और सात में से बाकी के चार शिक्षाव्रत हैं। सामायिक की महिमा ही ऐसी है कि सामायिक के समय तक महाव्रतपना आ जाता है। 5. प्रोषधोपवासप्रोषधोपवास पाँचवाँ शीलवत है। इसका अर्थ यह है कि पहले दिन बारह बजे के बाद से विषय, कषाय, व आहार को त्यागकर, तीसरे दिन बारह बजे के बाद आहार ग्रहण करें और पहले व तीसरे दिन भी जो आहार लें वह एक बार ही लें। इस प्रकार अड़तालीस घंटे धर्मध्यान के साथ व्यतीत करने चाहिए। कषाय व विषय यदि न छूट सके हों तो फिर आहार का त्याग करना केवल लंघन है। किसी-किसी ग्रन्थ में सामयिक शब्द लिखा रहता है। उसका अर्थ यों किया जाता है कि सम-एकत्वार्थक उपसर्ग, अय-प्राप्तिवाचक धातु, इनके संयोग से समयशब्द बन जाता है। 'एकत्वेन गमनं समयः' ऐसा राजवार्तिक में लिखा ही है। इसलिए 'एकत्व' की प्राप्ति ऐसा समय का अर्थ होता है। इस एकत्व प्राप्ति का जो कारण हो उस क्रिया को सामयिक कहते हैं। यह सामयिक का शब्दार्थ हुआ।"समस्य-रागद्वेषविमुक्तस्य सतः, अयो-ज्ञानादीनां लाभ: प्रथमसुखरूप: स समायः । समाय एव सामायः प्रयोजनमस्येति वा सामायिकम्। रागद्वेषहेतुमध्यस्थतेत्यर्थः । अथवा समयः आप्तसेवोपदेशः । तत्र नियुक्तं कर्म सामायिकम्।" (सा.धर्मा., 5.28)। 1. जिस तरह बीच में आकुलता या अन्तराय न आए उस तरह सँभलकर बैठना चाहिए, यही इस पद्धति का मतलब है। इस पद्धति में मुष्टिबन्ध करने को लिखा है उसका अर्थ यहाँ ऐसा होना चाहिए कि हाथों को संकोच ले। ध्यान मुद्रा की तरफ विचारने से मालूम होता है वामहाथ पर सीधा रख लेना यही अर्थ ठीक है। 2. परं तदेव मुक्त्यंगमिति नित्यमतन्द्रितः। नक्तांदिनान्तेऽवश्यं तद्भावयेच्छक्तितोऽन्यदा ॥ सा.धर्मा., 5.29 3. दिग्व्रतमनर्थदंडव्रतं च भोगोपभोगपरिमाणम्। अनुवृंहणाद् गुणानामाख्यान्ति गुणव्रतान्यार्याः ।। 67 ।।-रत्नक. श्रा. 4. देशावकाशिकं स्यात्सामायिकं प्रोषधोपवासो वा। वैयावृत्त्यं शिक्षाव्रतानि चत्वारि शिष्टानि ॥91 ।। 5. बाह्य सब विषयों से आसक्ति हट जाती है इसलिए महाव्रत कहना अनुचित नहीं है। ऊपर की शांतता देखने से ठीक ही है। 6. कषायविषयाहारत्यागो यत्र विधीयते। उपवासः स विज्ञेयः शेषं लंघनकं विदुः ॥ (सुभा.र.सं.) स प्रोषधोपवासो यच्चतुष्पा यथागमम्। साभ्यसंस्कारदाढाय चतुर्भुक्त्युज्झनं सदा ॥ (सा.ध. 5.34) ॥ पर्वण्यष्टम्यां च ज्ञातव्यः प्रोषधोपवासस्तु । चतुरभ्यवहार्याणां प्रत्याख्यानं सदेच्छाभिः ।।106 ॥ (रत्नक, श्रा.) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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