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________________ 192 :: तत्त्वार्थसार अपध्यान—बिना प्रयोजन किसी की जय, किसी की पराजय, किसी का अंगच्छेद, किसी का धनहरण होने की इच्छा करते रहना। इसके सिवाय और भी बहुत से अपध्यान हैं। जैसे इसकी स्त्री मर जाए या पुत्र मर जाए ये सब अपध्यान ही हैं। पापोपदेश–बिना प्रयोजन किसी को क्लेश उत्पन्न हो ऐसा बोलना, वध हो जाए ऐसा बोलना, वनस्पति आदि बढ़ाने, उपजाने का उपदेश देना। इससे अपना प्रयोजन यदि न हो तो ऐसा उपदेश अनर्थदंड है। अपने लाभार्थ अपने सेवकों से कराने के लिए ऐसा कहा जाए तो वह अनर्थदंड न होगा, केवल आरम्भादि के द्वारा लगने वाला दोष लगेगा जो कि गृहस्थ के लिए क्षम्य है। प्रमादचरित—बिना प्रयोजन वनस्पति काटना, जमीन खोदना, पानी बहाना, और भी जो-जो हिंसाकर्म हैं वे सभी इस अनर्थदंड में गर्भित हैं। अर्थात् बहुत से लोगों की जो ठाले-बैठे कुछ करते रहने की आदत पड़ जाती है वह सब प्रमादचर्या अनर्थदंड है। जैसे कुछ काम न हो तो किसी एक कागज के टुकड़े को उठा लेना और फाड़ते बैठना, या दो मनुष्यों को परस्पर भिड़ा देना और उनका झगड़ा देखदेखकर खुश होना, या हाथ में एक तिनका उठा लेना उसे तोड़ते बैठना। हिंसादान—विष, शस्त्र, चाबुक, लकड़ी इत्यादि वध, बन्धन, छेदन की सामग्री का दान करना या सहायता करना। कीड़े, खटमल, टिड्डी मारने के साधन तैयार करना और दूसरों को देना ये सब हिंसादान अनर्थदंड के ही प्रकार हैं। ____ दुःश्रुति-हिंसापोषक वचन सुनना, खोटी कथाएँ सुनना, आरम्भ-परिग्रहादिवर्धक उपाय सुनना, सीखना, रागद्वेष बढ़ाने की बातें सुनना, परस्पर में कलहकारी शिक्षा सुनना। ऐसी बातों से अनर्थ तो होता ही है और प्रयोजन थोड़ा भी सधता नहीं, इसलिए ये सर्व अनर्थदंड ही हैं। ये पाँच अनर्थदंड पाप हैं। इन पापों को दिखाने से पहले दिग्विरति व देशविरति कह दिये गये हैं और इनके आगे भोगोपभोगादि व्रत कहेंगे। इन दूसरे व्रतों के बीच में अनर्थदंड इसलिए आचार्यों ने कहा है कि दिग्विरति आदि व्रतों का प्रमाण भी आवश्यकता से अधिक न रखना चाहिए; यह बात' शिष्यों को मालूम हो। 4. सामायिक सामायिक उसे कहते हैं कि जो विषय विचारों से मन को हटाकर आत्मचिन्तवन में लगा दिया जाए। ऐसी अवस्था में सदा बने रहना तो मुनि से भी नहीं होता फिर गृहस्थी की तो क्या बात है? इसलिए सामायिक क्रिया करनेवाला गृहस्थ कुछ काल की मर्यादा करके प्रारम्भ करता है, इसके प्रारम्भ में पहले 1. क्षितिसलिलदहनपवनारम्भं विफलं वनस्पतिच्छेदम्। सरणं सारणमपि च प्रमादचर्यां प्रभाषन्ते ॥80 ॥ रत्नक. श्रा. 2. परशुकृपाणखनित्रज्वलनायुधशृंगशृंखलादीनाम्। वधहेतूनां दानं हिंसादानं ब्रुवन्ति बुधाः ।।77॥ रत्नक. श्रा. 3. आरम्भसंगसाहसमिथ्यात्वद्वेषरागमदमदनैः। चेतः कलुषयतां श्रुतिरवधीनां दुःश्रुतिर्भवति 179॥ रत्नक. श्रा. 4. मध्येऽनर्थदण्डग्रहणं पूर्वोत्तरातिरेकानर्थक्यज्ञापनार्थम्।-रा.वा. 7/21, वा. 22 5. सम-समता, अय-लाभ-इन दोनों से समाय शब्द बनता है। समाय शब्द का अर्थविशेष न रहने पर भी स्वार्थिक अण् प्रत्यय करके सामाय बना लिया जाता है। सामाय का अर्थ होता है कि एकत्व या समता का लाभ हो, अथवा समता प्राप्त हो जाने से आत्मज्ञानादिक का लाभ हो। यह प्रयोजन जिस क्रिया के करने से सध सकता हो उसे सामायिक कहते हैं। प्रयोजनार्थक ठक् इक् प्रत्यय व्याकरण में होता ही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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