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________________ 196 :: तत्त्वार्थसार शरीर व कषायों को संसार-भोगों से विरक्त होकर कृष करें, घटावें—इसी का नाम सल्लेखना है। जब यह मालूम हो जाए कि मेरा मरण अब निकट आ गया है तब यह सल्लेखना व्रत धारण किया जाता है। शरीर, भोगों से विरक्त होना यह तो धर्म का अर्थ ही है, परन्तु इस धर्म को गृहस्थ विषय सम्बन्ध न छूट सकने के कारण पूरी तरह पाल नहीं सकता, इसीलिए जब मरण के सन्मुख वह अपने को समझ लेता है तब विषय व कषायों को छोड़ देना अपना मुख्य कर्तव्य मानता है और वह पूर्ण विषयविमुख होकर आहार को क्रम से त्याग देता है। आहार के छूटने से शरीर कृष हो जाता है। कषाय तो कृष पहले से ही होने लगती है। क्योंकि, कषाय कृष न हो तो आहारादि से ममत्व छूटना असम्भव है। __यहाँ आत्मघात के दोष की शंका होना सम्भव है, परन्तु वह शंका तब होनी चाहिए जब कि मरण का समय न आने पर ही भोजन का त्याग कर दिया जाए, किन्तु यह बात सल्लेखना में नहीं होती। मर जाना तो किसी को भी इष्ट नहीं होता। श्रावक तथा साधु भी ऐसा समझते हैं कि जीते रहेंगे तो कर्मों की निर्जरा बहुत-सी करेंगे। वह निर्जरा शीघ्र मरनेवाले के हाथ से कैसे हो सकती है? तो भी यदि मरण आ ही गया हो तो उसे टाल तो सकते नहीं; उलटा विषयासक्त बनकर परभव को क्यों बिगाड़ें? यह समझकर वे व्रती कषायों के त्याग के साथ ही आहार का भी त्याग कर देते हैं और शान्ति से प्राण छोड़ते हैं। शान से जीना एवं शान्ति से मरना प्रत्येक प्राणी चाहता है। इसी का नाम सल्लेखना है। इसमें आत्मवध कैसा? सल्लेखनाव्रत सात शीलों के साथ में क्यों नहीं संगृहीत किया जाता? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि सात शीलों की तरह यह व्रत केवल श्रावकों के लिए ही नहीं है। जो गृहस्थ घर से विरक्त नहीं हुआ हो उसको विरक्त करने के लिए सात शील बताये गये हैं, इसलिए जो सात शील धारण करनेवाला है उसकी सल्लेखना बनी बनायी है। उसको जो विरक्ति प्राप्त हुई है उस विरक्तता को वह मरणान्त तक धारण करता ही है और ठीक मरण जानकर उस विरक्तता को और भी सँभाल लेता है। उस श्रावक को यदि सल्लेखना न कहें तो भी वह हानि नहीं उठाएगा, किन्तु जिसने मरणान्तपर्यन्त सात शील धारण नहीं किये उसके लिए सल्लेखना का उपदेश अधिक सार्थक है और यों तो मुनियों को भी सल्लेखना करने का उपदेश है, इसलिए केवल गृहस्थों के लिए जो शील बताये गये हैं उनमें सल्लेखना व्रत का समावेश कैसे हो सकता है? अतिचार प्रकरण सम्यक्त्व-व्रत-शीलेषु तथा सल्लेखनाविधौ। अतिचाराः प्रवक्ष्यन्ते पञ्च-पञ्च यथाक्रमम्॥ 83 ॥ अर्थ-सम्यग्दर्शन, पाँच व्रत, सात शील और सल्लेखना-इन चौदह बातों में जो मुख्य दोष लगना 1. "जातामयः प्रतिविधाय तनौ वसेद्वा, नो चेत्तनुं त्यजतु वा द्वितयी गति: स्यात्। लग्नाग्निमावस्रति वह्निमपोह्य गेही, निर्हाय वा व्रजति तन्त्र सुधीः किमास्ते ।।205 ॥" आ.शा.। "व्रतशीलपुण्यसंचयप्रवर्तमानस्तदाश्रयस्य शरीरस्य न पात्रमाभिवाञ्छति, तदुपप्लवकारणे चोपस्थिते स्वगुणाविरोधेन परिहरति । दुष्परिहरे च यथा स्वगुणविनाशो न भवति तथा प्रयतत इति कथमात्मवधो भवेत् ?" रा.वा., 7/22, वा. 8 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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