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________________ प्रस्तावना :: 23 एक सामान्य कथन द्वारा यदि हम द्रव्य, पंचास्तिकाय, तत्त्व एवं पदार्थ में अन्तर निकाल लें तो विषय और भी स्पष्ट हो जाएगा। जैसे - छह द्रव्यों में पहले जीवद्रव्य है। पंचास्तिकाय में पहले जीवास्तिकाय है। सात तत्त्वों में पहले जीवतत्त्व है एवं नव पदार्थों में पहले जीवपदार्थ है । इन चारों में पहले जीव सामान्य है, लेकिन इन चारों के विशेषण अलग-अलग क्यों हैं ? छहों द्रव्यों में जीवद्रव्य 'द्रव्य' की अपेक्षा से है, क्योंकि जीव में द्रव्य का लक्षण 'सत्' पाया जाता है।" अतः सर्वार्थसिद्धिकार ने प्रथम अध्याय के सूत्र नं. आठ की व्याख्या करते हुए लिखा है कि अब जीवद्रव्य की अपेक्षा सत् आदि अनुयोगद्वारों का कथन करते हैं।° इन अनुयोगद्वारों में जीव के गुणस्थान एवं मार्गणा का कथन किया है। I जैसे -- द्रव्य, ऐसा कहने पर भी उन-उन पर्यायों को द्रवता है अर्थात् प्राप्त होता है, इस प्रकार इस व्युत्पत्ति से युक्त जीव- अजीवादि और उनके भेद-प्रभेदों का संग्रह हो जाता है ।" उस संग्रह नय से ग्रहण किये गये पदार्थों का विधिपूर्वक अवहरण अर्थात् भेद करना व्यवहार नय है। शंका - विधि क्या है ? समाधान - जो संग्रह नय के द्वारा गृहीत अर्थ है उसी के आनुपूर्वी क्रम से व्यवहार प्रवृत्त होता है, यह विधि है । यथा, सर्वसंग्रहनय द्वारा जो वस्तु ग्रहण की गयी है वह अपने उत्तर भेदों के बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए व्यवहार नय का आश्रय लिया जाता है। यथा- जो सत् है वह या तो द्रव्य है या गुण। इसी प्रकार संग्रहनय का विषय जो द्रव्य है वह जीव - अजीव विशेष की अपेक्षा किये बिना व्यवहार कराने में असमर्थ है, इसलिए जीव द्रव्य है और अजीव द्रव्य है इस प्रकार के व्यवहार का आश्रय लिया जाता है। जीव और अजीव द्रव्य भी जब तक संग्रह नय के विषय रहते हैं तब तक वे व्यवहार कराने में असमर्थ रहते हैं, इसलिए व्यवहार से जीव द्रव्य के देव, नारकी, आदि रूप और अजीव द्रव्य के घटादि रूप भेदों का आश्रय लिया जाता । इस प्रकार इस नय की प्रवृत्ति वहीं तक होती है जहाँ तक वस्तु में फिर कोई विभाग करना सम्भव नहीं रहता।” इससे यह सिद्ध होता है कि द्रव्यों के गुण एवं पर्यायों का विश्लेषण चरम सीमा तक करना द्रव्यत्व गुण के महत्त्व को प्रदर्शित करता है अर्थात् जीवादि द्रव्यों का 'द्रव्य' की परिभाषानुसार कथन करने से ही जीवादि द्रव्यों की निर्दोष सिद्धि होती है। पंचास्तिकाय में जीवादि द्रव्यों के अस्तित्व का कथन है। जो चार्वाक आदि मत जीव के अस्तित्व को नहीं मानते या विकृत रूप में मानते हैं, उन्हें इस जीव के पूर्ण एवं निर्दोष अस्तित्व को शब्दार्थ, नयार्थ, मतार्थ, आगमार्थ, भावार्थ आदि द्वारा अनेक युक्ति - उपायों द्वारा सिद्ध किया है। 3 इन्हीं जीवादि अस्तिकाय के अस्तित्व को कायरूप (बहुप्रदेशीपना) से स्वीकार करना अस्तिकाय है। इसमें जीवादि द्रव्य आकाश के कितने प्रदेश क्षेत्र को स्पर्शित करते हैं इसका भी ज्ञान होता है, अतः जीवादि जो बहुप्रदेशी द्रव्य हैं उन्हें 'क्षेत्र' की अपेक्षा कायवान् कहा है। इसी प्रकार अन्य बहुप्रदेशीय द्रव्यों के अस्तिकाय का अस्तित्व जानना चाहिए। 69. सर्वा. सि., सू. 29, वृ. 582 70. सर्वा. सि., वृ. 34 71. सर्वा. सि., वृ. 243 72. सर्वा. सि., वृ. 244 73. पं. का., गा. 27 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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