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22 :: तत्त्वार्थसार
है। जहाँ आगम ग्रन्थ हैं वहाँ नव पदार्थ हैं. क्योंकि पदार्थ में उनके द्रव्य, गुण एवं पर्यायों का ही विश्लेषण है और जहाँ तत्त्व हैं वहाँ मात्र उनके भावों का कथन या विश्लेषण है, अत: समयसार में नव पदार्थों को नवतत्त्व इसलिए कहा कि उन्हें मात्र नव पदार्थों के भावों का ही विश्लेषण करना है न कि उनके द्रव्य, गुण और पर्यायों का। यदि समयसार में नव पदार्थ मानकर द्रव्य, गुण, पर्यायों का वर्णन करना पड़े तो जीवसमास, गुणस्थान आदि के भेद-प्रभेद सभी की पूर्ण व्यवस्था करना होगी, परन्तु समयसार में पदार्थों के भाव मात्र से तत्त्व का स्वरूप ग्रहण किया गया है, अत: समयसार में नव पदार्थों का नाम नव तत्त्व ग्रहण किया गया है, क्योंकि समयसार एक आध्यात्मिक ग्रन्थ है। तथा पंचास्तिकाय में नव पदार्थों का संक्षेप रुचि शिष्य अपेक्षा कथन है। अतः समयसार एवं पंचास्तिकाय में परस्पर विरोधी कथन नहीं है।
तत्त्वार्थसूत्रकार ने जब सम्यग्दर्शन का कथन किया तब तत्त्व और अर्थ के यथार्थ श्रद्धान को ही सम्यग्दर्शन कहा है, न अकेले तत्त्व को और न ही अकेले अर्थ (पदार्थ) के श्रद्धान को; क्योंकि तत्त्व एवं अर्थ दोनों के स्वरूप अलग-अलग होने से, मात्र एक के श्रद्धान करने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं, अतः सूत्र में तत्त्व और अर्थ इन दोनों पदों (अवस्थाओं) का ग्रहण किया हैं।
पदार्थों के यथार्थ ज्ञानमूलक श्रद्धान का संग्रह करने के लिए दर्शन के पहले सम्यक् विशेषण दिया है। जिस-जिस प्रकार से जीवादिक पदार्थ अवस्थित हैं, उस-उस प्रकार से उनका जानना सम्यग्ज्ञान हैजीवादि पदार्थों को विषय करने वाला यह सम्यग्दर्शन किस प्रकार उत्पन्न होता है?
सात तत्त्वों का प्ररूपण करते समय शिष्य ने शंका की है कि सूत्र में पुण्य-पाप का ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि पदार्थ नव होते हैं। इसका समाधान करते हुए कहा कि पुण्य-पाप का आस्रव एवं बन्ध तत्त्व में अन्तर्भाव हो जाता है, अत: इनका सूत्र में ग्रहण नहीं किया, क्योंकि यहाँ मोक्ष का प्रकरण होने से सात तत्त्वों की महत्ता दर्शाई गयी है।
जो सम्यग्दर्शनादि एवं जीवादि पदार्थ कहे हैं उनके विवक्षा-भेद को व्यवस्थित करने के लिए नामादि के द्वारा उनका निक्षेप किया गया है। इसमें जिस प्रकार जीव पदार्थ का नामादि से न्यास किया है उसी प्रकार अन्य अजीवादि पदार्थों में भी नामादि निक्षेप विधि लगा लेना चाहिए।
सम्यग्दर्शन के विषयरूप से जो जीवादि पदार्थ कहे हैं, उनमें से जीव पदार्थ का व्याख्यान किया। अब अजीव पदार्थ का व्याख्यान विचार करना है अत: उसकी संज्ञा और भेदों का कथन करने के लिए आगे का सूत्र कहते हैं।
इस तरह पूज्यपादाचार्य ने सर्वार्थसिद्धि टीका में हर तत्त्व के कथन की समाप्ति एवं उत्थानिका में पदार्थ शब्द का ही निर्देश किया है। इस प्रकार जहाँ भी पूज्यपादाचार्य ने तत्त्व को पदार्थ बनाकर विवेचन किया है वहाँ पर तत्त्व और पदार्थ के स्वरूप में अन्तर अवश्य है। इसे हमने प्रवचनसार, पंचास्तिकाय एवं समयसार के नवपदार्थ एवं नवतत्त्वों में अन्तर से सिद्ध किया है।
63. सर्वा. सि., वृ. 12 64. सर्वा. सि., वृ.5 65. सर्वा. सि., वृ. 13 66. सर्वा, सि., वृ. 19 67. सर्वा. सि., वृ. 21, 22 68. सर्वा. सि., वृ. 526
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