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________________ प्रस्तावना :: 21 तत्त्व शब्द की निष्पत्ति 'तत्+त्व' में 'खरि च' इस सूत्र द्वारा होती है। तत् सर्वनाम पद है, त्व प्रत्यय भाववाची है, ऐसे तत्त्व शब्द बना है। "उसी भाव रूप।" जो वस्तु जिस रूप है उसका उसी रूप होना 'तत्त्व' कहलाता है। 'तस्य भावस्तत्त्वम्'-जीवादि वस्तुओं के प्रकरण में ये सात तत्त्व अपना बहुत महत्त्व रखते हैं। इनका यथार्थ निर्णय हुए बिना मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। यही इस ग्रन्थ का मूल विषय है। पदार्थ-व्यक्त्याकृतिजातयस्तु पदार्थः । व्यक्ति, आकृति और जाति आदि पदार्थ हैं। अर्थोऽभिधेय: पदस्यार्थः पदार्थः " अर्थ अर्थात् अभिधेय पद का अर्थ सो पदार्थ है। अत: जानने योग्य या प्रयोजनभूत अथवा व्यापक अर्थ को पदार्थ कहते हैं। द्रव्य, गुण और पर्याय अभिधेय भेद होने पर भी अभिधान का अभेद होने से 'अर्थ' हैं। जो गणों और पर्यायों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं ऐसे अर्थ 'द्रव्य' हैं। जो आश्रयभूत द्रव्यों के द्वारा प्राप्त किये जाते हैं ऐसे अर्थ 'गुण' हैं। जो द्रव्यों के द्वारा क्रम परिणाम से प्राप्त किये जाते हैं। ऐसे अर्थ 'पर्याय' हैं। इस कथनानुसार द्रव्य, गुण, पर्याय इन तीनों को अर्थ कहा जाता है। जो सब पदार्थों को द्रव्य, गुण और पर्याय सहित जानता है वही सम्यग्दृष्टि है, क्योंकि पदार्थ वास्तव में द्रव्यमय है। द्रव्य गुणमय है। द्रव्य और गुणों से पर्याय होती है, अत: निश्चय से ज्ञान का विषयभूत पदार्थ द्रव्यमय होता है। सब द्रव्य गुणमयी होते हैं। द्रव्य व गुणों से पर्याय होती हैं। पद + अर्थ = पदार्थ। द्रव्य, गुण एवं पर्यायें अर्थ हैं। इन तीनों पद-अवस्थाओं से जो सहित हो वह पदार्थ है। जैसे-स्वर्ण, पीलापन, आभूषण। स्वर्ण द्रव्य है, पीतत्व उसका गुण है, आभूषण उसकी पर्याय है एवं उस आभूषण का जो नाम है वह पदार्थ है। जैसे-शक्कर एक द्रव्य है, मीठा उसका गुण है, मिठाई उसकी पर्याय है एवं उस मिठाई का नामकरण कि यह लड्डू है, पेड़ा है, बर्फी है आदि नाम पदार्थ हैं, क्योंकि इन सबमें शक्कर है, मीठा है एवं मिठाई है। अत: उस मिठाई का नाम पदार्थ है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने मोक्षमार्ग में साधनभूत पदार्थों के नाम एवं उनके स्वरूप का वर्णन 'पंचास्तिकाय' ग्रन्थ में संक्षेप रूप से किया है। जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध एवं मोक्ष ये नव पदार्थों के नाम हैं। लेकिन समयसार में इन्हें पदार्थ न कहकर नव तत्त्व कहा है। इसी गाथा की भूमिका एवं टीका में अमृतचन्द्राचार्य ने छठे, सातवें एवं आठवें कलश में नव तत्त्वों का ही निर्देश किया है। शंका यह है कि एक ही आचार्य ने दोनों ग्रन्थों में परस्पर विरोधी कथन क्यों किया? इस शंका के समाधान में जब तक पदार्थ एवं तत्त्व की परिभाषाओं का विश्लेषण नहीं समझेंगे तब तक इसका समाधान नहीं होगा। जैसे कि पहले कही पदार्थ की परिभाषाओं में द्रव्य, गुण, पर्यायें सम्मिलित हैं एवं तत्त्व अकेला भाव स्वरूप 54. सर्वा. सि., सम्पा. जग. स. 55. तत्त्वा . सा., प्र. पृ. 11 56. न्या. सू. 2/2/63 57. न्या. वि. टी., 1/7/140/15 58. प्रव. सा., गा. 87 टी. 59. प्रव. सा., गा. 93, टी. 60. पं. का., पृ. 277, गा. 108 61. स. सा., पृ. 29, गा. 13 62. स. सा., पृ. 27-29, गा. 12-13 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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