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________________ 20 :: तत्त्वार्थसार का आकार समघनचतुरस्र छह पहल, आठ कोणवाला है, क्योंकि द्रव्य का प्रदेशत्व गुण के लक्षणानुसार कालद्रव्य का कोई-न-कोई आकार होना चाहिए। कालद्रव्य को समझाते समय आचार्यों ने कालाणुओं को रत्नों की राशि का ही उदाहरण क्यों दिया, गेहूँ आदि धान्य या सामान्य रेती, कंकड़ों आदि के ढेर का उदाहरण क्यों नहीं दिया? गेहूँ आदि धान्य की राशि घुन जाती है, सड़ जाती है, रखी-रखी पुरानी होकर आपस में चिपक भी जाती है। सामान्य रेत या कंकड़ की कीमत भी सामान्य है, लेकिन रत्नराशि घुनती-सड़ती नहीं है; आपस में रखी चिपकती भी नहीं है, पुरानी भी नहीं होती। लोक व्यवहार में जिस प्रकार रत्न कीमती होते हैं. वैसे ही काल या समय अमूल्य होता है। जैसे-रत्नराशि सड़ती-घुनती, चिपकती नहीं है वैसे ही कालाणु का स्वरूप है, इन्हीं सब कारणों से कालद्रव्य को रत्नराशि की उपमा दी गयी है। काल द्रव्य के दो भेद हैं। पहला निश्चय काल, दूसरा व्यवहार काल। निश्चय काल वर्तना लक्षण वाला है एवं व्यवहार काल परिणाम, क्रिया, परत्वापरत्व लक्षण वाला है। समय दर्शाने वाली घड़ी में घण्टा-मिनट एवं सेकण्ड के काँटे लगे होते हैं। घड़ी की जिस बीच की धुरी में काँटे लगे होते हैं वह धुरी निश्चय काल का प्रतीक है, क्योंकि वह धुरी अपने में ही वर्तन कर रही है, लेकिन उसके सहारे घूमने वाले घण्टा, मिनट, सेकण्ड के काँटे व्यवहार काल के प्रतीक हैं। साहित्यिक कल्पना-इन छहों द्रव्यों से संसार का व्यवहार-व्यापार चलता है। जीव द्रव्य सरस्वती रूप प्रकार सरस्वती ज्ञान की मूर्ति कही जाती है, वैसे ही यह जीव ज्ञानमय होने से सरस्वती है। पाँच अजीव द्रव्य लक्ष्मी (धन) के रूप हैं। पुद्गल द्रव्य का व्यापार सर्वत्र अनुभव में आता है। धर्मद्रव्य गमनागमन रूप टोल टेक्स के रूप में प्रयोग होता है। अधर्म द्रव्य, आरक्षण का रूप है। आकाश द्रव्य अन्तरिक्ष, आकाश का भी हवाई क्षेत्र होने से टेक्स या क्रय-विक्रय होता है। काल द्रव्य समय सीमा के अनुसार कार्य करना-कराना अर्थात् काल द्रव्य के द्वारा धन कमाना है।। इस प्रकार जीव द्रव्य को छोडकर, पाँच अजीव-अचेतन द्रव्य हैं जिनके कारण विश्व में अनेक चमत्कार, आविष्कार दिखाई देते हैं। जीव द्रव्य को इन्हीं अजीव द्रव्यों की अनेक परिणमनशील पर्यायों से प्रभावित मानकर, कोई-कोई इन्हें ईश्वरीय, दैविक-भौतिक आदि अवस्थाओं के भिन्न-भिन्न रूप में स्वीकार कर पूजनीय-वन्दनीयनमस्करणीय, संग्रहणीय आदि बना लेते हैं और भटक जाते हैं, अत: जैनाचार्यों ने इन जीव-अजीव द्रव्यों के यथार्थ स्वरूप को सामने रखकर मनुष्यों की कपोल-कल्पित भ्रान्तियों-कुधारणाओं पर कुठाराघात किया है। तत्त्व-द्रव्य के बाद जैनशास्त्रों में जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का वर्णन आता है। तत्त्व शब्द का प्रयोग जैनदर्शन के सिवाय सांख्य दर्शन में भी हुआ है। सांख्य दर्शन में प्रकृति, महान् आदि पच्चीस तत्त्वों की मान्यता है। वस्तुत: संसार में जिस प्रकार जीव और अजीव ये दो ही द्रव्य हैं, उसी प्रकार जीव और अजीव ये दो ही तत्त्व हैं। जीव के साथ अनादिकाल से कर्म और नोकर्म रूप अजीव का सम्बन्ध हो रहा है और उसी सम्बन्ध के कारण जीव की अशुद्ध परिणति हो रही है। जीव और अजीव का परस्पर सम्बन्ध होने का जो कारण है वह आस्रव कहलाता है। दोनों का परस्पर सम्बन्ध होने पर जो एकक्षेत्रावगाहरूप परिणमन होता है उसे बन्ध कहते हैं। आस्रव के रुक जाने को संवर कहते है। सत्ता में स्थित पूर्व कर्मों का एक देश दूर होना निर्जरा है और सदा के लिए आत्मा से समस्त कर्म और नोकर्म का छुटना मोक्ष है। 52. तत्त्वा . सू., अ. 5, सू. 22 53. तत्त्वा . सा. प्र. पृ. 11 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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