SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 26
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 24 :: तत्त्वार्थसार सात तत्त्वों में पहला जीव तत्त्व है। इस जीव के स्वतत्त्व क्या हैं? औपशमिक, क्षायिक, मिश्र, औदयिक और पारिणामिक ये जीव के स्वतत्त्व हैं। ये पाँच भाव असाधारण हैं, इसलिए जीव के स्वतत्त्व कहे जाते हैं। इनके क्रमश: दो, नव, अठारह, इक्कीस एवं तीन इस प्रकार कुल तिरेपन भाव हैं। जो गुणस्थान क्रम से अलगअलग संख्या में पाए जाते हैं । इसी प्रकार आस्रव आदि तत्त्वों-भावों का विश्लेषण 'भाव' रूप में जानना चाहिए। नव पदार्थों में प्रथम जीव है। पदार्थ शब्द की सिद्धि पहले कर दी गयी है। यहाँ मात्र जीव पदार्थ क्यों है इसका कथन करना है। जीवादि पदार्थों का तीनों कालों में क्या स्वरूप रहता है? अतः जीवादि पदार्थ का विश्लेषण 'काल' न्यास विधि द्वारा किया गया है। 'द्रव्य' न्यास विधि अपेक्षा से जीवादि द्रव्य हैं। क्षेत्र' न्यास विधि अपेक्षा से जीवादि अस्तिकाय हैं। 'काल' न्यास विधि की अपेक्षा से जीवादि पदार्थ हैं। 'भाव' न्यास विधि अपेक्षा से जीवादि तत्त्व हैं। यही द्रव्य, पंचास्तिकाय, पदार्थ एवं तत्त्व में अन्तर है। सत् आदि अनुयोगद्वारों को भी संक्षेप रुचि, मध्यम रुचि एवं विस्तार रुचि शिष्यापेक्षा एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव न्यास विधि द्वारा घटित किया जा सकता है।" द्रव्य-सत्, संख्या द्रव्यापेक्षा क्षेत्र-क्षेत्र, स्पर्शन अस्तिकायापेक्षा मध्यम रुचि काल-काल, अन्तर पदार्थापेक्षा विस्तार रुचि भाव-भाव, अल्पबहुत्व तत्त्वापेक्षा संक्षेप रुचि तत्त्वज्ञान की विविध विधाएँ जैनागम में मूल रूप से जीव एवं अजीव ये दो ही द्रव्य, जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं। जीव द्रव्य को नव अधिकारों द्वारा उनके अनेक भेद-प्रभेदों से परमत खण्डन-स्वमत मण्डन की विधि द्वारा विश्लेषित किया है।" अजीव द्रव्य के पाँच भेद-प्रभेदों के स्वरूप द्वारा जीव का हित-अहित का दिग्दर्शन कराया गया है। इन जीव और अजीव द्रव्यों के ही आस्रव आदि विशेष भेद-प्रभेद हैं, जिन्हें तत्त्व एवं पदार्थ नाम से सम्बोधित करते हैं। इन्हीं जीवादि तत्त्व एवं पदार्थों के सच्चे श्रद्धान को आचार्यों ने सम्यग्दर्शन कहा है जो आत्मा का वास्तविक स्वरूप है। इस सम्यग्दर्शन के होने पर ही ज्ञान संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रहित सम्यग्ज्ञान कहलाता है। जिनागम में तत्त्वनिरूपण करने की एक प्राचीन शैली भगवन्त पुष्पदन्त और भूतबलि के द्वारा प्रचारित रही, जिसका उन्होंने षट्खण्डागम में सत्संख्या आदि अनुयोगों के द्वारा जीवादि तत्त्वों का वर्णन प्रारम्भ किया है। इस शैली में जीवद्रव्य का वर्णन बीस प्ररूपणाओं के द्वारा किया जाता है। यह शैली अत्यन्त विस्तृत होने के साथ दुरूह भी है। साधारण क्षयोपशमवाले जीवों का इसमें प्रवेश होना सरल बात नहीं है। 74. तत्त्वा . सू., अ. 2, सू. 1 75. तत्त्वा . सू., अ. 2, सू. 2 76. पं. का., गा. 8 77. सर्वा. सि., वृ. 33 78. द्र. सं., गा. 1 79. द्र. सं., गा. 2 80. द्र. सं., गा. 15 81. द्र. सं., गा. 28 82. द्र. सं., गा. 41 83. तत्त्वा . सा., प्र. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy