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चतुर्थ अधिकार :: 181 देखे बिना सूक्ष्म जीवों के घात होने की आशंका बनी रहती है। रात्रि में जन्तु दिख ही नहीं सकते, इसलिए रात्रि का भोजन सर्वथा वर्ज्य, यह अर्थ भी लिया जाता है । 'आलोकित - पान - भोजन' का अर्थ मात्र सूर्यप्रकाश में भोजन-पान करना नहीं है, क्योंकि सूर्यप्रकाश में अभक्ष्य भी खाया-पिया जा सकता है, अतः आलोकित-पान-भोजन का सही अर्थ है सूर्य के प्रकाश में पाँचों इन्द्रियों से देख शोधकर भोजन करना अर्थात् 1. घ्राण से सूँघना, अच्छी गन्धवाला भोजन - पान हो । 2. चक्षु से देखना, रंग रूप से देखने में अच्छा हो, 3. छूकर देखना- अतिउष्ण-शीत न हो । 4. स्वाद में अति तीखा - मीठा - वेस्वाद- अस्वाद न हो, 5. कर्णेन्द्रिय से, विकथा न सुनते हुए भोजन-पान करना अथवा भक्ष्य पदार्थों के नाम, अभक्ष्य पदार्थों के जैसे न कहना-सुनना । जैसे- नमकीन चावल को 'पुलाव', भोजन को 'खाना' नहीं कहना चाहिए, क्योंकि ऐसे अभक्ष्य पदार्थों के नाम सुनने से मन में ग्लानि, घृणा आदि उपजती हैं, जो हिंसात्मक हैं, अहिंसा व्रत का दूषण है ।
वचनगुप्ति व मनोगुप्ति से अहिंसाव्रत की पुष्टि किस प्रकार होती है ? इसका उत्तर - बोलने से भी प्राणघात तथा क्लेश होता है। इसी प्रकार मन की चंचलता से विषयासक्ति बढ़ती है और दूसरों के अहित का चिन्तवन भी मन की चंचलता में हो सकता है, इसलिए दोनों के रोकने से अहिंसाव्रत का पोषण अवश्य होगा।
अब यह शंका होना सम्भव है कि कायगुप्ति क्यों नहीं लिखी ? इसका उत्तर - यह आस्रव का प्रकरण है, इसलिए यहाँ वचनगुप्ति तथा मनोगुप्ति का मतलब भी ऐसा नहीं लेना चाहिए कि जैसा वास्तव गुप्तियों में समझा जाता है। तब ? अशुभ वचन का अशुभ से हटकर शुभ में मन-वचन काय को लगाना, अशुभ विचार का निरोध यही अर्थ लेना चाहिए । अहिंसा व्रत की पाँच भावना में जो गुप्ति एवं समिति हैं वे प्रवृत्ति रूप हैं । एवं संवर के कारणों में जो गुप्ति एवं समिति हैं वे पूर्णत: निरोध, अर्थात् निर्वृत्ति रूप हैं क्योंकि संवर रूप गुप्ति में सम्यक् शब्द लगा है जिसका अर्थ शुभ-अशुभ रूप दोनों है, मन-वचन काय को रोकना । नहीं तो संवर में उपयोगी जो गुप्ति हैं वे आस्रवोपयोगिनी मानी जाएँगी। इसी प्रकार कायगुप्ति भी लेनी हो तो अशुभनिर्वृत्ति मात्र ली जाती है । तो यहाँ कायगुप्ति का संग्रह क्यों नहीं किया ? इसका उत्तर यह है कि ईर्यासमिति तथा ग्रहणनिक्षेपण समिति का ही अर्थ अशुभ कायगुप्ति रूप हो सकता है। क्योंकि, अशुभ कायप्रवृत्ति का निरोध उक्त दोनों समितियों में ठीक हो जाता है, इसलिए दोनों समितियों का कहना क्या और अशुभकायगुप्ति का कहना क्या ? एक ही अर्थ है।
1. अर्कालोकेन विना भुंजानः परिहेत्कथं हिंसा । अपि बोधिते प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजंतूनाम् ॥ (पु.सि., 133 ) । ननु च षष्ठमणुव्रतमस्ति रात्रिभोजनविरमणं तदिहोपसंख्यातव्यं ? न भावनास्वतन्तर्भावात् । अहिंसाव्रतभावना हि वक्ष्यंते ॥ तत्रालोकितपानभोजनभावना कार्येति । (सर्वा.सि. वृ. 664) ॥ यहाँ पर सर्वार्थसिद्धि में रात्रि भोजन त्याग को छट्टा अणुव्रत कहकर ग्रहण कराने की शंका लिखी है और उसके उत्तर में लिखा है कि अलग ग्रहण करने की आवश्यकता नहीं हैं क्योंकि, अहिंसाव्रत की पाँच भावनाओं में से आलोकितपानभोजन नामक पाँचवीं भावना में समाविष्ट कर लेते हैं। इससे यह दिखता है कि किसी पक्षवालों ने इसे छठा अणुव्रत माना होगा। दर्शनसार में भी, 'छटुं च अणुव्वदं' ऐसा उल्लेख है।
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