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182 :: तत्वार्थसार
सत्यव्रत की भावना
क्रोध-लोभ-परित्यागौ हास्यभीरुत्ववर्जने॥ 64॥
अनुवीचिवचश्चेति द्वितीये पञ्च भावनाः। अर्थ-क्रोध को छोड़ना, लोभ को छोड़ना, हँसी-ठट्टा करना छोड़ देना, कभी किसी को भय न न दिखाना, कुछ बोलना तो धर्ममर्यादा के अनुकूल बोलना अथवा विचारकर बोलना, ये पाँच भावना सत्यव्रत की हैं। इन पाँचों बातों के न छोड़ने से सत्यव्रत में मलिनता आती है। क्रोधादि पाँचों में से प्रत्येक कारण ऐसा है कि उसके वश असत्य बोलना होता है। पहले चार कारण तो स्पष्ट ही हैं। अनुवीचिभाषण भी न रखा जाए तो बहुप्रलाप में असत्य वचन निकलना सम्भव है। अचौर्यव्रत की भावना
शून्यागारेषु वसनं विमोचित-गृहेषु च॥ 65॥ उपरोधाविधानं च भैक्ष्यशद्धिर्यथोदिता।
ससधर्माविसंवादः तृतीये पञ्च भावनाः॥ 66॥ अर्थ-पर्वतों की गुफा, वृक्षों के कोटर स्थान आदि शून्यागार कहलाते हैं। दूसरों की जगह हो और उन्होंने रहने से छोड़ दी हो उसे विमोचितावास कहते हैं। तपस्वियों को रहना हो तो शून्यागारों में तथा विमोचितावासों में रहें। जो किसी व्यक्ति की जगह में बिना पूछे रहें तो अचौर्य व्रत मलिन होता है। जहाँ
आप रहें वहाँ भी यदि कोई दूसरा आवे तो मना न करें। नहीं तो उस भूमि पर स्वामित्व की भावना उत्पन्न होती है जो कि अचौर्यव्रत को मलिन करनेवाली है। भिक्षा लेने में जो शुद्धि रखनी चाहिए वह न रखी जाए तो दूषित भिक्षा ग्रहण करने वाला अचौर्यव्रत में मलिनता उत्पन्न करेगा। क्योंकि, जो दूषित भिक्षा ग्राह्य नहीं थी उसको ले लिया यह भी चोरी का दोष है। समान धर्म के धारक जैन साधु परस्पर में विसंवाद न करें, नहीं तो अचौर्यव्रत मलिन होता है। क्योंकि, विसंवाद से यह मेरा, तेरा ऐसे पक्ष ग्रहण होते हैं जिससे कि अग्राह्य का ग्रहण करना सम्भव हो जाता है, यह भी तो चोरी का एक प्रकार है। इसलिए शून्यागार, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि, सधर्माविसंवाद—ये पाँच भावना अचौर्यव्रत के रक्षार्थ रखनी ही चाहिए। ब्रह्मचर्य व्रत की भावना
स्त्रीणां रागकथाश्रावोऽरमणीयाङ्गवीक्षणम्। पूर्वरत्यस्मृतिश्चैव वृष्येष्टरस वर्जनम्॥67॥
शरीरसंस्क्रियात्यागश्चतुर्थे पञ्च भावनाः। अर्थ-स्त्रियों की रागभरी कथा न सुनना, उनके रमणीय अंगों को न देखना, पूर्व के भोगों का स्मरण नहीं करना, पुष्ट तथा इष्ट रसों का भोजन नहीं करना, शरीर संस्कार न करना, ये पाँच ब्रह्मचर्य की भावना हैं।
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