SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 180 :: तत्त्वार्थसार व्रत के भेद कार्येन विरतिः पुंसां हिंसादिभ्यो महाव्रतम्। एकदेशेन विरतिर्विजानीयादणुव्रतम्॥ 61॥ अर्थ-हिंसादि पापों का सर्वथा त्याग हो जाना सो महाव्रत है। एकदेश त्याग को अणुव्रत कहते हैं। व्रतरक्षा के उपाय व्रतानां स्थैर्यसिद्ध्यर्थं पञ्च पञ्च प्रति व्रतम्। भावनाः सम्प्रतीयन्ते मुनीनां भावितात्मनाम्॥62॥ अर्थ-व्रत के विषय देखें तो पाँच हैं, इसलिए व्रत के भेद भी पाँच कर सकते हैं-अहिंसाव्रत, सत्यव्रत, अचौर्यव्रत, ब्रह्मव्रत, परिग्रहत्याग-व्रत। इनमें से प्रत्येक व्रत की रक्षा हो, दृढ़ता हो, इसलिए पाँच-पाँच भावना प्रत्येक व्रत के विषय में बताते हैं। ये भावनाएँ मुनिजनों के ही हो सकती हैं, क्योंकि वे पूर्ण व्रत धारण करते हैं। पूर्ण व्रतों की सँभाल तभी हो सकती है जबकि उनमें आए बारीक-बारीक दोषों की ओर भी ध्यान दिया जाए। दूसरे, मुनिजनों का आत्मा विषयों से पूर्ण विरक्त होकर शान्त हो चुकता है। वे ही ऐसे बारीक-बारीक दोष का ध्यान रखते हैं। गृहस्थ के लिए यह उपदेश मुख्य नहीं हैं। अहिंसाव्रत की भावना वचोगुप्तिर्मनोगुप्तिरीर्यासमितिरेव च। ग्रहनिक्षेपसमितिः पानान्नमवलोकितम्॥ 63॥ इत्येताः परिकीर्त्यन्ते, प्रथमे पञ्च भावनाः। अर्थ-वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, ग्रहणनिक्षेपणसमिति, सूर्य प्रकाश में देखकर अन्नजल ग्रहण करना—ये पाँच भावनाएँ अहिंसाव्रत की हैं। वचन न बोलना वचनगुप्ति है। मन न चलाना या मन की चंचलता से बचना मनोगुप्ति है। गमन करते समय जन्तुघात से बचने के लिए सावधानी रखना, भूमि देखते जाना सो ईर्यासमिति है। किसी चीज के धरने उठाने में जन्तुघात न होने की सावधानी रखना सो ग्रहण निक्षेपण-समिति है। अवलोकित अन्नपान का अर्थ है सूर्य प्रकाश में देखकर भोजन करना; क्योंकि व्रतमभिसंधिकृतो नियमः । बुद्धिपूर्वकपरिणामोऽभिसंधिः । इदमेवेत्थमेव वा कर्तव्यमित्यन्यनिवृत्तिर्नियमः । (स एव) व्रतव्यपदेशभाग भवति। (रा.वा. 7/1, वा. 3)। जो अनिष्ट है वह छूट ही सकता है। जो अनुपसेव्य हो वह भी छोड़ देना चाहिए। ये दोनों तो सर्वथा स्वयं त्याज्य हैं और जो योग्य तथा सम्भव विषय हों उनका त्याग परलोक हित के लिए करना चाहिए। असली त्याग वही है। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy