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चतुर्थ अधिकार :: 179
छेद देना, देव को नैवेद्य समर्पण' कर देने पर फिर से उसे लोभवश उठा लेना, निर्दोष-निष्पाप उपकरणसाधन छोड़ देना, प्राणियों का वध करना, दान-भोग-उपभोग-लाभ-वीर्य आदि में विघ्न डालना, ज्ञानाभ्यास का निषेध करना, धर्म में विघ्न डालना-ये सब कार्य अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं।
इसके साथ ही किसी के सत्कार में बाधा डालना, किसी का बढ़ता हुआ विभव देखकर आश्चर्य करना, स्त्रियों का झूठा अपवाद करना, देवता को समर्पण किया या न किया हुआ द्रव्य आप ले लेना, दूसरे का बल क्षीण करना, किसी के व्रतचारित्र को बिगाड़ना, ये भी अन्तराय कर्म के आस्रव के कारण हैं। अन्तराय के पाँच भेद कहेंगे। वे भेद दानादि विषय पाँच होने से होते हैं । यद्यपि यहाँ दानान्तरायादि पाँचों के जुदे कारण नहीं लिखे हैं, परन्तु विचारने से ऊपर लिखे हुए कारणों में ही वे सर्व विभाग हो सकते हैं। जहाँ दान के सम्बन्ध में किसी क्रिया का निषेध हो जिससे कि दान देने का काम बन्द पड़ जाए वह क्रिया दानान्तराय का कारण होगी। इसी प्रकार सर्वविभाग हो सकते हैं। पुण्य-पाप कर्म के आस्रव हेतु
व्रतात्किलास्त्रवेत्पुण्यं पापं तु पुनरव्रतात्।
संक्षिप्यास्रवमित्येवं चिन्त्यतेऽतो व्रताव्रतम्॥59॥ अर्थ-व्रत से पुण्यकर्म, जो कि सुख का कारण है, आता है। अव्रत से पाप आता है, इस प्रकार सामान्य आस्रव का प्रकरण संक्षेप से ही दिखा दिया और अब व्रत तथा अव्रत का स्वरूप विस्तार से दिखाते हैं।
व्रत किन्हें कहते हैं?
हिंसाया अनृताच्चैव स्तेयादब्रह्मतस्तथा।
परिग्रहाच्च विरतिं कथयन्ति व्रतं जिनाः। 60॥ अर्थ-हिंसा से विरक्त होना, झूठ से विरक्त होना, चोरी करने से विरक्त होना, मैथुन सेवन से विरक्त होना, परिग्रह जंजाल से विरक्त होना-इसी को जिन भगवान् व्रत कहते हैं। हिंसादिक पापों का लक्षण आगे लिखेंगे। चारित्रमोह कर्म का उदय जीव की प्रवृत्ति उक्त पापों में कराता है, इसलिए उस कर्म का उदय बन्द हो तो व्रत प्राप्त हो सकते हैं। मोह कर्मोदय का बन्द होना यहाँ अन्तरंग कारण है, परन्तु बाहर में मर्यादा भी उक्त पापों की संकल्पपूर्वक करनी पड़ती है तभी व्रत दृढ़ रह सकता है। पापाचरण से विरक्त होना यह व्रत का लक्षण है। पापाचरण के हिंसादि पाँच भेद हैं।
1. देवता को अर्पण कर दी गयी नैवेद्य आदि चीज को प्रमादवश होकर ग्रहण करने वाला अन्तराय कर्म को बाँधता है ऐसा इस
ग्रन्थ में लिखा। परन्तु राजवार्तिक में अर्पित अनर्पित दोनों को ही लेनेवाला अन्तराय कर्म का भागी लिखा है। अर्पण न की
हुई देव द्रव्य वह समझनी चाहिए कि जो देवदेवालय के उपयोग के लिए जमीन या धन सम्पत्ति इकट्ठी की जाती है। 2. यदनिष्टं तद्वतयेद्यच्चानुपसेव्यमेतदपि जह्यात् । अभिसंधिकृता विरतिर्विषयायोग्याद् व्रतं भवति ।। (रत्न.क.श्रा., श्लो. 86)।
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