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________________ 178 :: तत्त्वार्थसार तीर्थंकर कर्म के अतिशय की यह विशेषता भी है कि इस कर्म का स्वामी जीव धर्म का प्रधान नेता अथवा धर्म का उत्पादक होता है, इसीलिए इस बन्ध के कारणों की पूजा है। ये समस्त कारण एकत्रित हों तब तो तीर्थंकर कर्म बँधता ही है, परन्तु दर्शनविशुद्धि आदि एक-दो कारण रहने पर भी बन्ध होता है। नीचगोत्र कर्म के आस्रव - हेतु - असद्गुणानामाख्यानं सद्गुणाच्छादनं तथा । स्वप्रशंसान्यनिन्दा च नीचैर्गोत्रस्य हेतवः ॥ 53 ॥ अर्थ - गुण न रहते हुए भी अपने उन गुणों का वर्णन करना, दूसरों में जो गुण हों उनको न कहकर उन्हें दबाने की इच्छा रखना; अपनी प्रशंसा करना, दूसरों की निन्दा करना-ये कार्य नीचगोत्र कर्म के आस्रव में हेतु होते हैं । उच्चगोत्र कर्म के आस्रव हेतु नीचैर्वृत्तिरनुत्सेकः पूर्वस्य च विपर्ययः । उच्चैर्गोत्रस्य सर्वज्ञैः प्रोक्ता आस्रवहेतवः ॥ 54 ॥ अर्थ- गुणों में अधिक ऐसे गुरुजनों के साथ नम्रता से रहने को नीचवृत्ति (नम्रता) कहते हैं । दर्प या अहंकार न करना सो अनुत्सेक है। ये दो कारण उच्चगोत्र कर्म के आस्रव होने में उपयोगी हैं। इसके साथ-साथ जितने कुछ नीचगोत्र के आस्रव के कारण ऊपर लिखे हैं उनसे उलटे परिणाम उच्चगोत्र कर्म के आस्रव में कारण होते हैं । अन्तराय कर्म के आस्त्रव-हेतु - Jain Educationa International तपस्वि-गुरु-चैत्यानां पूजालोप- प्रवर्तनम् । अनाथ- दीन-कृपण- भिक्षादिप्रतिषेधनम् ॥ 55 ॥ वध-बन्धनिरोधश्च नासिकाच्छेद- कर्तनम् । प्रमादाद् देवता-दत्त- नैवेद्यग्रहणं तथा ॥ 56 ॥ निरवद्योपकरण- परित्यागो वधो ऽङ्गिनाम् । दान-भोगोपभोगादि- प्रत्यूहकरणं तथा ॥ 57 ॥ ज्ञानस्य प्रतिषेधश्च धर्मविघ्नकृतिस्तथा । इत्येवमन्तरायस्य भवन्त्यास्त्रवहेतवः ॥ 58 ॥ अर्थ - तपस्वी- गुरु- प्रतिमाओं की पूजा विध्वंस कर देना, अनाथ- दीन - कृपणों को भिक्षा देना बन्द कर देना, किसी को बाँध डालना, किसी को रोक रखना, किसी के नाक-कान आदि काट लेना तथा For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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