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________________ चतुर्थ अधिकार :: 177 11. ग्यारहवाँ कारण है 'छह आवश्यक' कर्मों का कभी न छोड़ना। छह आवश्यक कर्मों के नाम हैं : (1) सामायिक, (2) स्तुति, (3) वन्दना, (4) प्रतिक्रमण, (5) प्रत्याख्यान, (6) कायोत्सर्ग। सामायिक का अर्थ ऐसा है सब पाप क्रिया छोड़कर चित्त को ज्ञान में स्थिर करना। चौबीस तीर्थंकरों के गुणों का चिन्तवन करना स्तुति है। तीनों योग शुद्ध करके खड़े या बैठे होकर चारों दिशाओं में एक-एक बार शिर नवाना और तीन-तीन बार दोनों मुकुलित हाथों से आवर्त करना यह वंदना का अर्थ है। आवर्त का मतलब मुकुलित हाथों का दक्षिणायन चक्कर लगाना है। लगे हुए दोष दूर करने की प्रार्थना तथा पश्चात्ताप करने को प्रतिक्रमण कहते हैं। आगामी दोष न लगने देने की प्रतिज्ञा या संकल्प कर लेने को प्रत्याख्यान कहते हैं। कुछ मर्यादित काल तक शरीर से ममत्व छोड़ देने को कायोत्सर्ग कहते हैं। जो कि पापों से अलिप्त रहना चाहते हैं उन्हें ये छ: कर्म और तीनों सन्ध्या अवश्य करने चाहिए, इसीलिए उन्हें आवश्यक काम कहते हैं। ____ 12. बारहवाँ कारण ‘बहुश्रुतभक्ति' है। बहुश्रुत का अर्थ बहुज्ञानी होता है। स्व-पर समय विस्तार का ज्ञाता बहुश्रुत तो होते ही हैं, परन्तु वे परहित निरत भी होते हैं। 13. तेरहवाँ कारण आचार्य में अनुराग या भक्ति रखना है, इसे 'आचार्यभक्ति' कहते हैं। आचार्य भी बहुश्रुत तो होते ही हैं, परन्तु वे परहितनिरत भी होते हैं। 14. सर्वधर्मोपदेश के आदिविधाता सर्वज्ञ केवली जिन भगवान में भक्ति रखना यह चौदहवाँ 'अर्हद्भक्ति' कारण है। अर्हत् भगवान् साक्षात् ज्ञानी होते हैं, पूर्णवीतराग होते हैं, इसीलिए इन्हें सबसे अधिक पूर्ण प्रमाण माना जाता है, सर्वहितु गिना जाता है, निष्पक्षपात माना जाता है। 15. जिनोपदिष्ट प्रवचन-शास्त्र में प्रीति करना सो 'प्रवचनभक्ति' नाम का पन्द्रहवाँ कारण' है। 16. सोलहवाँ कारण 'प्रवचनवात्सल्य है। साधर्मियों के साथ प्रीति रखना सो प्रवचनवात्सल्य है। भक्ति और वात्सल्य में अन्तर इस बात का है कि भक्ति अपने से बड़ों में ही की जाती है और वात्सल्य छोटे-बड़े सभी के साथ हो सकता है। भक्ति आदरविशिष्ट अनुराग को कहते हैं और वात्सल्य केवल अनुराग होता है। यह सोलह प्रकार के कार्य तथा परिणाम तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव में कारण होते हैं। इनका 'षोडशकारण' नाम से व्यवहार प्रसिद्ध है। यद्यपि ये कारण बन्धास्रव के हैं तो भी निर्जरा-मोक्ष के कारणज्ञान-दर्शन-चारित्र की तरह पूजे और माने जाते हैं, क्योंकि, इस तीर्थंकर कर्म के उदय को प्राप्त हुआ जीव अनेक संसारी प्राणियों का उद्धार करता हुआ आप अवश्य मुक्त होता है। ऐसा अविनाभावी सम्बन्ध दूसरे किसी भी कर्म में नहीं है। यद्यपि आहारक शरीर का उदय छठे गुणस्थान में होता है, इसलिए वह संयमी जीव भी मोक्षगामी अवश्य है, तथापि यह नियम नहीं है कि वह तद्भव ही मोक्षगामी हो। दूसरी बात 1. अर्हदाचार्येषु बहुश्रुतेषु प्रवचने च भावविशुद्धियुक्तोऽनुरागो भक्तिः ।-रा.वा. 6/24, वा. 10 2. वत्से धेनुवत्सधर्मणि स्नेह: प्रवचनवत्सलत्वम्।-रा.वा. 6/24, वा. 13 3. तान्येतानि षोडशकारणानि सम्यग्भाव्यमानानि व्यस्तानि समस्तानि च तीर्थंकरनामकर्मास्रवकारणानि प्रत्येतव्यानि (रा.वा. 6/24, वा. 13) Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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