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________________ चतुर्थ अधिकार :: 173 अर्थ-सदा सरल परिणाम रखने से, आरम्भ व परिग्रह थोड़ा रखने से, स्वभाव कोमल रखने से, गुरुजनों की पूजा, विनय करने में सदा तत्पर रहने से, कुटुम्बादि सम्बन्धी विषयों के इष्टानिष्ट वियोग, संयोग होने पर संक्लेश कम करने से, दान देने से, प्राणियों के घात को छोड़ने से मनुष्यायुकर्म का आस्रव होता है। मनुष्यायु के कारण और भी हो सकते हैं। जैसे कि शीलव्रत धारण न करके भी मन्द कषाय रखने से मनुष्यायु का आस्रव होता है। वह मन्दकषाय धूल में की हुई लकीर के समान जल्दी मिट जाने वाला हो। रति थोड़ी करने से, सन्तोष रखने से, प्रायश्चित लेने से, पापकर्म न करने से, थोड़ा बोलने से, मधुर स्वभाव रखने से, जीवन-निर्वाह के लिए दूसरों के अनुग्रह की प्रतीछा न रखने से, कापोत व पीत लेश्या धारने से और आयु के अन्त समय धर्मध्यान रखने से भी मनुष्यायु का आस्रव होता है। देवायु के कर्मास्त्रव के हेतु अकामनिर्जरा बालतपो मन्दकषायता। सुधर्मश्रवणं दानं तथायतनसेवनम्॥42॥ सरागसंयमश्चैव. सम्यक्त्वं देशसंयमः। इति देवायुषो ह्येते भवन्त्यास्त्रवहेतवः॥43॥ अर्थ-बालतप व अकामनिर्जरा का अर्थ लिख चुके हैं, इनके होने से, कषाय मन्द रखने से, श्रेष्ठ धर्म को सुनने से, दान देने से, आयतनसेवी बनने से, सराग संयम धारण करने से, देशसंयम धारण करने से, सम्यग्दृष्टि होने से देवायु का आस्रव होता है। आयतन नाम स्थान का है। यहाँ पर प्रसंगवशात् धर्मायतन या धर्माश्रय ऐसा आयतन शब्द का अर्थ होता है। धर्मायतन छह हैं-देव, गुरु, शास्त्र व देवोपासक, गुरूपासक, शिष्यगण। इन धर्मायतनों की सेवा करने से, इनकी संगति रखने से धर्मलाभ होता है इसीलिए ये आयतन शुभायु के आस्रव के हेतु माने गये हैं। ___अकामनिर्जरा, बालतप यथा मन्दकषाय ये देवायु के कारण अवश्य हैं, परन्तु जीव मिथ्यादृष्टि हो तो भवनत्रिक देवों में जन्म ले सकता है। बालतप आदि जो मिथ्यादृष्टि के ही हाथ होते हैं, वे इसीलिए उत्कृष्ट देवायु के कारण नहीं हो सकते हैं। सम्यग्दर्शन, देशसंयम, सरागसंगम-इत्यादि जो कारण हैं वे सौधर्मादि स्वर्गवासी उत्कृष्ट देवायु के लिए होते हैं। दान को देवायु का कारण बताया है और पहले मनुष्यायु का भी कारण कहा है, परन्तु मनुष्यायु का जो दान कारण होता है वह साक्षात् होता है और देवायु का परम्परा कारण। क्योंकि, दान का फल भोगभूमि प्राप्त होना है और भोगभूमि का जीव एक बार देव ही होता है यह नियम है। यह साक्षात् और परम्परा का मतलब है। दूसरे, ऐसा भी है कि एक जाति का परिणाम अन्तर्गत असाधारणता के वश अनेक कार्यों का कारण हो सकता है, इसलिए एक ही दान क्रिया भोगभूमि के मनुष्यायु का भी कारण हो सकती है, और देवायु का भी कारण हो सकती है। दान निकृष्ट हो तो तिर्यंच आयु का भी कारण हो सकता है, चित्त में दया रखना, प्रोषधोपवास करना, तपों में भावना रखना-इत्यादि क्रियाएँ भी देवायु के आस्रव की कारण होती हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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