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________________ 172 :: तत्त्वार्थसार तिर्यंच आयु के आस्त्रव - हेतु - नैः शील्यं निर्व्रतत्वं च मिथ्यात्वं परवञ्चनम् । मिथ्यात्वसमवेतानामधर्माणां च देशनम् ॥ 35 ॥ कृत्रिमागुरु- कर्पूर- कुंकुमोत्पादनं तथा । तथा मान तुलादीनां कूटादीनां प्रवर्तनम् ॥36॥ सुवर्ण - मौक्तिकादीनां प्रतिरूपक - निर्मितिः । वर्ण- गन्ध- रसादीनामन्यथापादनं तथा ॥ 37 ॥ तक्र क्षीरघृतादीनामन्यद्रव्यविमिश्रणम् । वाचान्यदुत्काकरणमन्यस्य क्रियया तथा ॥ 38 ॥ कापोत- नील-लेश्यात्वमार्तध्यानं च दारुणम् । तैर्यग्योनायुषो ज्ञेया माया चास्रवहेतवः॥39॥ अर्थ - शील न रखना, व्रत न रखना, मिथ्यादृष्टि होना, दूसरों को ठगते रहना, मिथ्यादृष्टियों के खोटे धर्मों का उपदेश करना, अगर, कपूर, कुंकुम इत्यादि चीजों को नकली तैयार करना, बाँट तराजू आदि चीजों को हीनाधिक रखना, सोना, मोती आदि वस्तुओं को नकली तैयार करना, किसी चीज के रस-गन्ध-वर्ण-स्पर्श को बदलना, दूध, घी, छाँछ आदि चीजों में दूसरी चीजें मिला देना, वचन या शरीर की क्रिया से दूसरों में घबराहट पैदा कर देना । कापोत या नील लेश्या रहना, तीव्र आर्तध्यान करते रहना, ये सब तिर्यंच योनि के आयुकर्म के लिए आस्रव के कारण हैं । इनके सिवाय मायाचार सबसे मुख्य कारण है। दूसरों को ठगने में अति प्रयत्न रखना, दूसरे को ठग लेने पर प्रसन्न होना, ये सर्व मायाचार के ही भेद हैं और ये तिर्यंच आयु के कारण 1 आर्तध्यान का जो कारण कहा है वह यदि मरण समय में हो तो अवश्य ही तिर्यंच आयु का कारण हो जाए। बाकी समय में किसी भी आयु का कारण मिलने पर भी बन्ध होने का नियम नहीं रहता, क्योंकि भुज्यमान वर्तमान आयुकर्म की स्थिति का एक तृतीयांश शेष रह जाने पर उत्तर भव के आयुकर्म का बन्ध हो सकता है। इससे प्रथम तो कभी होता ही नहीं । उस प्रथम तृतीयांश में यदि बन्ध न हो तो उस शेष स्थिति का भी एक तृतीयांश शेष रहने पर होता है। तब भी न हो तो उस शेष के भी तृतीयांश शेष रहने पर होगा। ऐसे तृतीयांशों के प्रसंग किसी-किसी को आठ बार तक हो जाते हैं । इसे ही आठ बन्धापकर्ष काल कहते हैं। आठवें भाग बन्ध अवश्य ही होता है, इसीलिए चाहे जब आयुबन्ध नहीं होता। यह सभी आयु कर्मों का सामान्य नियम है। मनुष्यायु के आस्रव - हेतु - Jain Educationa International ऋजुत्वमीषदारम्भपरिग्रहतया सह । स्वभावमार्दवं चैव गुरुपूजनशीलता ॥40॥ अल्पसंक्लेशता दानं विरतिः प्राणिघाततः । आयुषो मानुषस्येति भवन्त्यास्त्रवहेतवः ॥ 41 ॥ For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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