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________________ चतुर्थ अधिकार :: 171 कामोत्पादक कुचेष्टा करना, भोगोपभोग विषयों में अतिप्रेम रखना ये बातें रतिकर्मास्रव की कारण हैं। किसी चीज से आप द्वेष करना, दूसरों को अरति उत्पन्न कराना, पापियों की संगत करना ये सब काम अरतिकर्मास्रव के हेतु हैं। दूसरों को शोक होने पर आनन्दित होना, शोक उत्पन्न करना, दुख उत्पन्न करना—इन सबसे शोककर्म का आस्रव होता है । निर्दय रहने से, अधिक भय युक्त रहने से, दूसरों को भय उत्पन्न करने से, भयकर्म का आस्रव होता है । चारों वर्णवालों का जो वर्ग कुलक्रियाचार है उसमें ग्लानि दिखाने से जुगुप्सा कर्म का आस्रव होता है। अर्थात् अपने-अपने वर्ग या कुलों के अनुसार जो क्रियाचार होते हैं वे बहुत से लोगों को पसन्द नहीं होते - उसमें वे ग्लानि करते हैं, परन्तु ऐसा करना सकर्मका कारण है । पुरुष - स्त्री - नपुंसक की तरह दूसरे को भोगने की वांछा रखने से स्त्री-पुरुषनपुंसक वेद का आस्रव होता है। इसके सिवाय स्त्रीवेद कर्म का आस्रव होने में अतिमान, असत्य भाषण जैसी बातें भी कारण हो जाती हैं। स्त्रीभोग की अल्प आकांक्षा, मायाचार न रखना इत्यादि स्वभाव पुरुषवेद के कारण होते हैं। भोग की अतिआसक्ति, गुह्येन्द्रियछेदन इत्यादि क्रियाएँ नपुंसकवेदास्रव के लिए कारण होती हैं। नरकायु के आस्रव - हेतु - उत्कृष्टमानता शैलराजीसदृशरोषता । मिथ्यात्वं तीव्रलोभत्वं नित्यं निरनुकम्पता ॥ 30 ॥ अजस्त्रं जीवघातित्वं सततानृतवादिता । परस्वहरणं नित्यं नित्यं मैथुनसेवनम् ॥31॥ कामभोगाभिलाषाणां नित्यं चातिप्रवृद्धता । जिनस्यासादनं साधुसमयस्य च भेदनम् ॥ 32 ॥ मार्जार- ताम्रचूड़ादिपापीयः प्राणिपोषणम् । नैः शील्यं च महारम्भपरिग्रहतया सह ॥ 33 ॥ कृष्णलेश्यापरिणतं रौद्रध्यानं चतुर्विधम् । आयुषो नारकस्येति भवन्त्यात्रवहेतवः ॥34॥ अर्थ - कठोर पत्थर के समान तीव्र मान रखना, पर्वतमालाओं के समान अभेद्य क्रोध रखना, मिथ्यादृष्टि होना, तीव्रलोभ होना, सदा निर्दयी बने रहना, सदा जीवघात करना, सदा ही झूठ बोलने में चतुराई मानना, सदा परधन हरने में लगे रहना, नित्य मैथुनसेवन करना, कामभोगों की अभिलाषा सदा जाज्वल्यमान रखना, जिन भगवान् की आसादना करना, साधुधर्म का उच्छेद करना, बिल्ली - कुत्ते - मुर्गे आदि हिंसक प्राणियों को पालना, शीलव्रत रहित बने रहना और आरम्भ - परिग्रह को अति बढ़ाना, कृष्ण लेश्या बनाये रखना, हिंसानन्दी, मृषानन्दी, चौर्यानन्दी व परिग्रहानन्दी नाम के चारों रौद्र ध्यान, जिन्हें आगे निर्जरा के वर्णन में लिखेंगे, उनमें लगे रहना - ये सब अशुभ कर्म नरकायु के आस्रव के हेतु हैं । अर्थात् जिन कार्यों को क्रूरकर्म कहते हैं और जिन्हें व्यसन कहते हैं वे सभी नरकायु के कारण हैं। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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