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________________ 170 :: तत्त्वार्थसार यत्न करें वे यति हैं । जो शरीररूप घर से भी प्रीति छोड़ चुके हों वे अनगार हैं । यह शब्दार्थ हुआ। तदनुसार गुण भी इनमें रहते हैं। इनको शूद्र और अशुचि कहना सो सब संघावर्णवाद' है। देवों को मद्यादिसेवी कहना देवावर्णवाद है। ये दोषारोपण झूठे क्यों हैं? इसलिए कि धर्म, देव, श्रुत, संघ का वैसा स्वरूप नहीं है। धर्म में तो मद्यादि सेवन की उलटे निन्दा ही की गयी है, देव भी मांसादिसेवी नहीं होते हैं। शास्त्रों में वैसा स्वरूप वर्णन भी नहीं किया गया है। साधुओं का आत्मा अतिपवित्र है। जो अपने स्वरूप को समझ चुके हों और शरीर संस्कार को मिथ्या मानकर शरीर संस्कार से विमुख हो चुके हैं उनसे भी अधिक शुचि कौन होगा? शरीर को आत्मा माननेवाले संसारीजन शरीर के पोषण से अपना हित समझते हैं। उन्हें आत्मज्ञान नहीं हआ है, इसीलिए वे शरीरशौच को अपना शौच मानते हैं, परन्तु आत्मज्ञानी के लिए व है। वे पुद्गल से मिले हुए आत्मा को निष्कलंक करने में लगे हुए हैं, इसलिए वे ही सबसे शुचि हैं। शूद्रता का दोष भी उनमें नहीं आता। शूद्र का अति असंस्कृत आत्मा साधुपद के योग्य आत्मविशुद्धि नहीं कर सकता, इसलिए साधुओं में शूद्र का समावेश नहीं होता, वे शूद्र नहीं होते, इसलिए साधुओं में शूद्र भी रहते हैं-यह कहना मिथ्या है। केवलियों को कवलाहार का दोष लगाया जाता है वह भी मिथ्या है। तीर्थंकरों में स्त्री होने का दोष लगाया जाता है यह भी मिथ्या है। ये दोनों बातें केवलज्ञान का लक्षण लिखते समय दिखाएँगे। आत्मा के सम्यग्दर्शनगुण को मलिन करनेवाले और भी सभी कार्य दर्शनमोहास्रव के कारण होते हैं। ऊपर जो अवर्णवाद बताये हैं उनसे आत्मस्वरूप का श्रद्धान तथा तत्त्वश्रद्धान विरुद्ध हो जाता है, इसलिए वे सब सम्यग्दर्शन घातक दर्शनमोहकर्म के अनुभाग सामर्थ्य को बढ़ाते हैं। आत्मा को न मानना इत्यादि दोष भी दीर्घ दर्शनमोहास्रव के कारण समझने चाहिए। चारित्रमोहनीय के आस्रव-हेतु स्यात्तीव्रपरिणामो यः कषायाणां विपाकतः। चारित्रमोहनीयस्य स एवास्तवकारणम्॥29॥ अर्थ-क्रोधादि कषायों का उदय होने से जो परिणामों में तीव्रता उत्पन्न होती है वह चारित्रमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है। क्रोध की तीव्रता क्रोधकर्म के आस्रव के कारण हैं। मान-माया-लोभ की तीव्रता मान-माया-लोभ कर्म के लिए कारण हैं, परन्तु सामान्यभाव से देखें तो जग के अनुग्रह में लगे हुए व्रतशील सम्पन्न तपस्वियों की निन्दा, धर्म का विध्वंसन अथवा धर्मसेवन में विघ्न डालना, मधुमांसादि से विरत रहनेवाले चित्त में भ्रम उत्पन्न करना, व्रतों में दोष लगाना, क्लेशदायक वेशधारण करना, अपने को कषाय उत्पन्न हो या दूसरे को हो ऐसा कार्य करना, इत्यादि आचरण से चारित्रमोहनीय कर्म का आस्रव होता है। खूब हँसना, दूसरों की हँसी करना, इत्यादि बातों से हास्यकर्म का आस्रव होता है। 1. अन्त:कलुषदोषादसद्भूतमलोद्भावनमवर्णवादः । मांसभक्षणानवद्याभिधानं श्रुते। निगुणत्वाद्यभिधानं धर्मे। शूद्रत्वाशुचित्वाद्याविर्भावनं संघे। सुरामांसोपसेवाद्याघोषणं देवावर्णवादः।-रा.वा. 6/14, वा. 7-12 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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