SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चतुर्थ अधिकार :: 169 अर्थ- दया रखना, दान देना, तपश्चरण करना, शील धारण करना, सत्य बोलना, आत्मशौच को पालना, इन्द्रिय दमन करना, क्षमा धारण करना, धर्मात्माओं की सेवा में उपस्थित रहना, विनययुक्त रहना, जिन-पूजा, परिणाम सरल रखना, मुनियों का सरागसंयम या महाव्रत धारण करना, गृहस्थियों के देशव्रत धारण करना, प्राणिमात्र पर करुणा रखना और व्रतियों पर विशेष करुणा रखना-ये साता-वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण हैं। इन कारणों के सिवाय अकामनिर्जरा' बालतप, समाधिइत्यादि कारण भी साता-वेदनीय में उपयोगी होते हैं। सरागसंयम का अर्थ मुनिचारित्र है, परन्तु मुनि वीतराग भी होते हैं, इसलिए जब तक राग नाश नहीं हुआ तब तक के सभी मुनि यहाँ लिये जा सकते हैं। संयम का अर्थ अशुभनिवृत्ति करना है। शुद्ध चारित्र वाले जो साधु हैं वे सराग नहीं होते। दानादि का लक्षण आगे कहेंगे। मोहनीय के दो भेद हैं-दर्शन मोहनीय व चारित्रमोहनीय। इनका स्वरूप तो आगे कहेंगे, परन्तु इनके आस्रव हेतु यहीं बताते हैं। दर्शनमोहनीय के आस्रव-हेतु केवलिश्रुतसंघानां धर्मस्य त्रिदिवौकसाम्। अवर्णवादग्रहणं तथा तीर्थकृतामपि॥27॥ मार्गसंदूषणं चैव तथैवोन्मार्गदेशनम्। इति दर्शनमोहस्य भवन्त्यास्रवहेतवः ॥ 28॥ __ अर्थ-केवली भगवान् की, शास्त्र की, संघ की, धर्म की, देवों की तथा तीर्थंकरों की झूठी निन्दा करना सो दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव का कारण है। झूठी निन्दा का मतलब यह है मन में ईर्ष्याद्वेष उत्पन्न होने से झूठे दोष लगाना। इसी को अवर्णवाद भी कहते हैं। सच्चे मोक्षमार्ग को दूषित ठहराना, असत्य मोक्षमार्ग को सच्चा बताना—ये भी दर्शन मोहास्रव के कारण हैं। इन्द्रियों द्वारा व क्रम से संसारीजनों को ज्ञान होता रहता है। यह क्रमसम्बन्धी तथा इन्द्रियपराधीनता सम्बन्धी दोष जिनके पवित्र आत्मा में से निकल गया हो-जो केवल आत्म बल से सर्व विषयों को युगपत् जानते रहते हों वे केवली कहलाते हैं। उन केवली ने जो तत्त्वोपदेश किया हो और ऋषियों ने फिर तदनुसार लिखा हो, उसे शास्त्र कहते हैं। उस निर्दोष प्रमाण शास्त्र को अप्रमाण बतलाना, मांसभक्षणोपदेश युक्त उसे कहना-इत्यादि श्रुतावर्णवाद है। इसी प्रकार धर्म का अवर्णवाद भी कहते हैं। रत्नत्रयपूर्ण ऋषि-मुनि-यति-अनगार इन चारों का समूह सो संघ है, ये चारों साधु हैं। ये चार नाम पड़ने के चार कारण हैं। कर्मक्लेशों का नाश करने में जो उद्यत हों वे ऋषि हैं, ऋद्धि धारण करने वाले मुनियों को भी ऋषि कहते हैं, आम विद्याओं के अभ्यासी हों सो मुनि हैं। जो पापनाश करने के लिए 1. विषयाननर्थनिवृति चात्माभिप्रायेणाकुर्वतः पारतन्त्र्याभोगोपभोगनिरोधोऽकामनिर्जरा।-रा.वा. 6/12, वा. 7 2. यथार्थप्रतिपत्त्यभावादज्ञानिनो बाला मिथ्यादृष्ट्यादयस्तेषां तपो बालतपः। अग्निप्रवेशकारीषसादनादिप्रतीतम्।-रा.वा. 6/12. वा. 7 3. निरवद्यक्रियाविशेषानुष्ठानं योगः समाधिः।-रा.वा. 6/12, वा. 8 4. प्राणीन्द्रियेष्वशुभप्रवृत्तेर्विरतिः संयमः।-सर्वा.सि., वृ. 632 5. रेषणात्केशराशीनामृषिमाहुर्मनीषिणः। मान्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कीर्त्यते मुनिः॥ यः पापप्रकाशनाशाय यतते स यतिर्भवेत्। योऽनीहो देहगेहेऽपि सोऽनगार: सतां मतः ॥ इति यशस्ति. 8 आ.। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy