SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 168 :: तत्त्वार्थसार वध है। पश्चात्ताप या ताप' का एक ही मतलब है। विलाप का नाम क्रन्दन है। इस तरह से रोना कि सुननेवाले भी दु:खी हो जाएँ सो परिदेवन' कहलाता है। इन बातों को स्वयं करना, दूसरों में उत्पन्न कर देना अथवा स्वयं भी करना, दूसरों में भी उत्पन्न कर देना, ऐसा करने से असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है। इनके सिवाय दूसरों की चुगली खाने से, छेदने से, भेदने से, तोड़ने से, दमन करने से, डराने से, तरासने से, अति शीघ्र किसी के भी विश्वास में आ जाने से, पाप कर्म के द्वारा आजीविका अर्जित करने से, वक्र स्वभाव रखने से, शस्त्र-दान करने से, धर्म में विघ्न डालने से, तपस्वियों की निन्दा करने से, शीलव्रत के छोड़ने से, असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है। असातावेदनीय के और दूसरे' भी कारण हैं। जैसे कि, दूसरों की निन्दा करना, चुगली खाना, दया न रखना, किसी को रोक लेना, दूसरे जीव पर सवार होकर चलना, अपनी प्रशंसा करना, महाआरम्भ, परिग्रह रखना ये सभी असातावेदनीय कर्मास्रव के हेतु हैं। वक्र स्वभाव को अशुभ नाम कर्म का भी आस्रव का कारण लिखेंगे और ऊपर असातावेदनीय का कारण लिख चुके हैं, परन्तु यह कोई विरोध नहीं है, एक ही क्रिया अनेक प्रकार के परिणाम उत्पन्न कराती है। फिर जिस अभिप्राय से वह क्रिया की जाए वैसा ही वह फल देती है। वक्र स्वभाव आनन्द के लिए धारण किया जाए तो असांतावेदनीय का कारण हो। यदि वही वक्र स्वभाव किसी जीव का सहज स्वभाव सा पड़ गया हो तो अशुभ गति आदि नामकर्मों का भी कारण हो सकता है। इसी प्रकार यदि बहुत आरम्भ-परिग्रह में रत हो जाए तो उससे नरक आयु का आस्रव हो और उसी को आनन्द का हेतु मानने से असातावेदनीय का आस्रव हो सकता है। एक-एक कषाय क्रियाओं में इसी प्रकार और भी अनेक अविरोधी कर्म लाने की शक्ति होती है। सातावेदनीय के आस्रव-हेतु दया दानं तपः शीलं सत्यं शौचं दमः क्षमा। वैयावृत्यं विनीतिश्च जिनपूजार्जवं तथा॥25॥ सरागसंयमश्चैव संयमासंयमस्तथा। भूतव्रत्यनुकम्पा च सद्वेद्यास्त्रवहेतवः ॥26॥ 1. परिवादादिनिमित्तमाविलान्त:करणस्य तीव्रानुशयस्तापः।-रा.वा. 6/11, वा. 3 2. परितापजाश्रुपातप्रचुरविलापाद्यभिव्यक्तं क्रन्दनमाक्रन्दनम्।-रा.वा. 6/11, वा. 4 3. संक्लेशप्रवणं स्वपरानुग्रहाभिलाषविषयनुकम्पाप्रायं परिदेवनम्।—रा.वा. 6/11, वा. 6 4. इतिकरणानुवृतेः सर्वत्रानुक्तसंग्रहः अर्थात् इस आस्रव प्रकरण के अन्त में राजवार्तिकालंकार के कर्ता श्री अकलंकदेव लिखते हैं कि सूत्र के एक 'इति' शब्द को प्रथम से लेकर यहाँ तक लाया जा सकता है और उसके लाने का प्रयोजन यह समझना चाहिए कि जिन कारणों का जिक्र नहीं हो पाया है वे भी उस-उस कर्मास्रव के कारण समझे जाएँ। 5. ज्ञानावरणे बध्यमाने युगपदितरेषामपि बन्ध इष्यते आगमे। अतो यत्प्रदोषनिह्नवादयो ज्ञानावरणादीनामास्रवाः प्रतिनियता उक्तास्ते सर्वेषां कर्मणां आस्रवा भवन्ति । किंच यद्यपि प्रदेशादिबन्धनियमो नास्ति तथापि अनुभागविशेषनियमहेतुत्वेन तत्प्रदोषादयः प्रविभज्यन्ते । (इति वार्ति.) अर्थात् अनुभाग भी प्रदेशादिबन्ध की तरह सामान्यतः तो सातों, आठों प्रकृतियों में उत्पन्न होता ही है, परन्तु विशेषानुभाग उसी कर्म में उत्पन्न होगा कि जिसका नियत कारण उपस्थित हो। 6. अनुग्रहार्दीकृतचेतसः परपीडामात्मस्थामिव कुर्वतोऽनुकम्पनमनुकम्पा। सर्वा.सि., वृ. 632 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy