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________________ चतुर्थ अधिकार :: 167 अर्थ- - 1. देखने में अन्तराय डालना, 2. किसी के देखने की प्रशंसा होती हो वहाँ पर मुख से कुछ न कहकर भीतर ईर्ष्या-द्वेष रखना, 3. अपने देखने को छिपाना, 4. दूसरों को दिखाना नहीं, 5. अच्छे दर्शन को दोष लगा देना, 6. दूसरे किसी को कुछ दिखाना चाहें तो मना कर देना - ये दर्शनसम्बन्धी दोष दर्शनावरण के आस्रव के कारण हैं। इनके सिवाय दर्शनावरण के और भी बहुत से आस्रव के कारण हैं। उनमें कुछ ग्रन्थकार स्वयं दिखाते हैं। जैसे कि किसी की आँखें निकलवा लेना, बहुत सोना, दिन में सोना इत्यादि काम भी दर्शनावरण के आस्रव - कारण हैं । नास्तिकता की वासना रखना, सम्यग्दर्शन में दोष लगाना, कुतीर्थों की प्रशंसा करना, तपस्वियों को देखकर उनके विषय में ग्लानि करना - ये भी दर्शनावरण के आस्रवहेतु हैं । यहाँ शंका यह होगी कि नास्तिकता की वासना आदि बातों से दर्शनावरण का आस्रव क्यों होता है? यदि हो तो दर्शन मोह का आस्रव होना सम्भव है। क्योंकि, सम्यग्दर्शन के विपरीत कार्यों से सम्यग्दर्शन मलिन हो सकता है न कि दर्शनोपयोग । उत्तर - जैसे बाह्य इन्द्रियों से मूर्तिक पदार्थों का दर्शन होता है वैसे ही विशेष ज्ञानियों को अमूर्तिक आत्मा का भी तो दर्शन होता है। जिस प्रकार सर्व ज्ञानों में आत्मज्ञान अधिक पूज्य है उसी प्रकार बाह्य विषय के दर्शनों की अपेक्षा अन्तर्दर्शन या आत्मदर्शन अधिक पूज्य है, इसलिए आत्मदर्शन के बाधक कारणों को दर्शनावरण के आस्रव का हेतु मानना अनुचित नहीं है । नास्तिकता की वासना आदि भी दर्शनावरण के आस्रवहेतु हो सकते हैं। 3. वेदनीय के प्रथम भेद, असातावेदनीय के आस्रव-हेतुदुःखं शोको वधस्तापः क्रन्दनं परिदेवनम् । परात्मद्वितयस्थानि तथा च परपैशुनम् ॥ 20 ॥ छेदनं भेदनं चैव, ताडनं दमनं तथा । तर्जनं भर्त्सनं चैव, सद्यो विश्वसनं तथा ॥ 21 ॥ पापकर्मोपजीवित्वं वक्रशीलत्वमेव च । शस्त्रप्रदानं विश्रम्भघातनं विषमिश्रणम् ॥ 22 ॥ श्रृंखला- वागुरा-पाश-रज्जु - जालादिसर्जनम् । धर्मविध्वंसनं धर्मप्रत्यूहकरणं तथा ॥ 23 ॥ तपस्विगर्हणं शीलव्रत - प्रच्यावनं तथा । इत्यसद्वेदनीयस्य भवन्त्यास्रवहेतवः॥24॥ अर्थ - पीड़ा होने का नाम दुःख' और खेद का नाम शोक है। शरीरेन्द्रियों का घात करना सो 1. पीडालक्षणः परिणामो दुःखम् । - रा. वा. 6 / 11, वा. 1 2. अनुग्राहकसम्बन्धविच्छेदे वैक्लव्यविशेषः शोकः । - रा. वा. 6/11, वा. 2 3. आयुरिन्द्रियबलप्राणवियोगकरणं वधः । - रा. वा. 6 / 11, वा. 5 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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