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चतुर्थ अधिकार :: 161 9. दूसरों के दुःख देने में लगना सो परिताप क्रिया है। 10. दूसरों के शरीर-इन्द्रिय-श्वासोच्छ्वास को नष्ट करना सो प्राणातिपात क्रिया है।
विशेष-1. ये पाँच क्रियाएँ सूक्ष्म से स्थूल की ओर, भाव से द्रव्य की ओर हैं, जैसे-क्रोधादि के निमित्त से जीव का अपने अन्दर रागद्वेष परिणाम करना, 2. पुनः कषाय आदि के निमित्त से वचनकाय का दुरुपयोग करना, 3. पुनः कषाय के प्रयोग को प्रदर्शित करने के लिए हिंसक हथियार, औजार आदि ग्रहण करना, 4. पुनः इन हथियारों से दूसरों को पीड़ा देना, 5. और पीड़ा देकर मार देना।
अब पाँच क्रियाएँ ऐसी हैं जिनका' इन्द्रियभोगों से सम्बन्ध है11. सौन्दर्य देखने की इच्छा सो दर्शनक्रिया है।
12. किसी चीज को छूने की इच्छा होना सो स्पर्शन क्रिया है। इन दो इन्द्रिय विषयों की वांछाओं में ही शेष इन्द्रिय विषय वांछाएं समाविष्ट है।
13. इन्द्रियभोगों की पूर्ति के लिए नये-नये सामान इकट्ठे करना या उत्पन्न करना सो प्रात्ययिकी क्रिया है।
14. स्त्री, पुरुष तथा पशुओं के बैठने, उठने के स्थानों को मल-मूत्र से खराब कर डालना सो समन्तानुपात क्रिया है।
15. बिना देखी, झाड़ी-पोंछी हुई भूमि पर बैठना, उठना, सोना सो अनाभोग क्रिया है। अब पाँच क्रियाएँ ऐसी हैं कि जो ऊँचे धर्माचरण को दूषित करनेवाली हैं
16. दूसरे के नियोगी काम को स्वतः करना सो स्वहस्त क्रिया है। वर्णाश्रित कार्यों के बदलने से यह दोष मुख्यतया लगता है और इसी से देश की व्यवस्था का भंग या अव्यवस्थितपना हो जाता है। ____ 17. पाप साधनों के देने, लेने में सम्मति रखना सो निसर्ग क्रिया है। यहाँ निसर्ग शब्द का अर्थ है पापिष्ठ कामों की छूट देना।
___18. अच्छे कामों को आलस्यवश स्वयं नहीं करना अथवा दूसरों के निंद्य कार्य का भंडाफोड़ करना—यह सब विदारण क्रिया का अर्थ है।
19. प्रमादवश आवश्यक धर्मकार्यों को न कर सकना या विपरीत उपदेश करना सो आज्ञाव्यापादिनी क्रिया है। ___20. प्रवचन में दिखाए हुए धर्मानुष्ठान के करने में उन्मत्तता के साथ आलस्य के वश होकर आदर या प्रेम न रखना सो अनाकांक्षा क्रिया है।
अब पाँच ऐसी क्रियाएँ गिनाते हैं कि जिनके रहने से धर्म धारने में विमुखता रहे
21. काटना, तोड़ना, कुचलना-इत्यादि कार्यों में लगे रहना और दूसरा कोई ऐसा करे तो हर्षित होना सो आरम्भ क्रिया है।
22. परिग्रहों का कुछ भी विध्वंस न हो जाए ऐसे उपायों में लगे रहना सो परिग्रह क्रिया है।
1. दर्शन-स्पर्शन-प्रत्यय-समन्तानुपातानाभोगक्रिया:पंच। स्वहस्तनिसर्गविदारणाज्ञाव्यापादनाकांक्षाक्रियाः पञ्च ।-रा.वा. 6/5, वा. 9-10 2. आरम्भ-परिग्रह-माया-मिथ्यादर्शनाप्रत्याख्यानक्रियाः पञ्च ॥-रा.वा. 6/5, वा. 11
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