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________________ 160 :: तत्त्वार्थसार आस्रव होता है। यद्यपि साम्परायिक कर्म का कारण कषाय ही है तो भी इन्द्रियादिकों को जुदा कारण इसलिए गिनाया है कि कषायों के कार्यकारण सम्बन्ध की अवस्थाएँ मालूम पड़ जाएँ। जब तक कषाय मनोगत रहे, तब तक उसे कषाय कहना चाहिए और इन्द्रिय, अव्रत तथा क्रियाओं को कषायों का कार्य कहना चाहिए। उन पच्चीस क्रियाओं के नाम तथा अर्थ दिखाते हैं 1. चैत्य'-गुरु-प्रवचन की पूजा करना इत्यादि कार्यों से सम्यक्त्ववृद्धि होती है, इसलिए यह सम्यक्त्वक्रिया है। ___ 2. जिनसे मिथ्यात्व बढ़े ऐसे कार्य करने का नाम मिथ्यात्वक्रिया है। जैसे मिथ्या देवों की स्तुति करना। ___3. हाथ-पाँव आदि हिलाने की जो क्रिया हो वह प्रयोगक्रिया कहलाती है। जैसे कि चलना फिरना। ___4. संयमी होकर असंयम की तरफ झुकना, समादानक्रिया कहलाती है। योगसाधक पुद्गल वर्गणाओं के संग्रह करने को भी समादान क्रिया कहते हैं। इस समादानक्रिया का तात्पर्य इतना ही है कि जो पुद्गल ग्रहण करने में कुछ समय से रुक रहे हैं उनका फिर ग्रहण करना अथवा नये-नये पुद्गलों को ग्रहण करने की तरफ प्रवृत्त होना। 5. ईर्यापथ-क्रिया पाँचवीं है। यह समादान-क्रिया से उलटी है। साधु को लक्ष्य कर चौथी व पाँचवीं ये दो क्रियाएँ बतायी हैं। संयमी की ऐसी कोई क्रिया होने लगे कि जिससे विषय ग्रहण हो वह संयमी की एक समादान नामक पाप क्रिया हुई। साधु संयम बढ़ानेवाली जिस क्रिया को करे उसे ईर्यापथ क्रिया कहते हैं। ईर्यापथ एक समिति है। ईर्यापथ का अर्थ आगे कहेंगे। इस क्रिया को यद्यपि ईर्यापथ नाम से कहा है, परन्तु पाँचों समितियों का अर्थ इसमें गर्भित है। विशेष—इन पाँच क्रियाओं में से पहली दो क्रियाएँ सम्यक्त्व सुधरने, बिगड़ने की अपेक्षा से हैं। चौथी, पाँचवीं संयम सुधरने, बिगड़ने की अपेक्षा से हैं, बीच की तीसरी प्रयोग-क्रिया सामान्य जीव मात्र के लिए है जो मिथ्यात्व और सम्यक्त्व दोनों के साथ लगती है, अतः उसे मध्य दीपक बताया है। उन्हीं का उल्लेख यहाँ होना चाहिए। पाँचों समितियों का जो आगे स्वरूप कहेंगे उससे मालूम होगा कि पाँचों ही समितियाँ जैसे संवर के लिए कारण हैं, वैसे कुछ शुभ आस्रव के लिए भी कारण हैं। इसीलिए संयमवर्द्धक ईर्यापथ समिति को यहाँ क्रियाओं में गिनाया है। ईर्यापथ का अर्थ भी इसीलिए पाँचों समिति करना चाहिए। उपलक्षण न्याय से पाँचों का ग्रहण करना असम्बद्ध भी नहीं है। आगे जिन पाँच क्रियाओं को कहते हैं वे परहिंसा की मुख्यता से हैं6. क्रोध के आवेश से द्वेषादिरूप बुद्धि का कर लेना सो प्रादोषिक क्रिया है। 7. प्रदोष उत्पन्न हो जाने पर हाथ से मारने लगना, मुख से गाली देने लगना-ऐसी प्रवृत्ति को कायिक क्रिया कहते हैं। 8. हिंसा के साधनभूत बन्दूक, छुरी इत्यादि चीजों का लेना, देना, रखना-इस सबको आधिकरणिकी क्रिया कहते हैं। 1. "सम्यक्त्वमिथ्यात्वप्रयोगसमादानेर्यापथक्रियाः पञ्च"-रा.वा. 6/5, वा. 7 2. प्रदोषकायाधिकरणपरितापप्राणातिपातक्रियाः पञ्च।-रा.वा. 6/5, वा. 8 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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