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________________ चतुर्थ अधिकार :: 159 आदि अनुभाग शक्तियाँ व्यक्त होने के लिए कषायरूप सहकारी कारण की आवश्यकता मानी जाती हैं, उसी प्रकार वर्गणाओं में रहनेवाली उपादान शक्तियाँ भी कारण माननी पड़ती हैं। हाँ, सहकारी का तो नियम' भी नहीं है, परन्तु उपादान कारण अवश्य मानना पड़ता है। इसी बात को हम और भी सीधे शब्दों में कहें तो यों कह सकते हैं कि उस समय का सातारूप कहना भी कहना मात्र है। क्योंकि, कर्मों का असली कार्य यह है कि आत्मा में स्वरूप विपर्यास तथा परतन्त्रता उत्पन्न हो। परन्तु वह साताकर्म स्वरूपविपर्यास भी नहीं कर सकता, और परतन्त्रता भी नहीं कर सकता, इसलिए वह नाममात्र कर्म है। साताकर्म भी जो जीव को परतन्त्र करने में समर्थ हो सकते हैं वे कषाय के बिना बद्ध नहीं होते। ___ यदि साताकर्म योगियों को वास्तविक बन्ध ही उत्पन्न नहीं करता तो इसे कर्म क्यों कहते हैं और इसके रहते हुए आत्मा पूरा मुक्त नहीं होता? इसका उत्तर ___ आत्मा को पूरा मुक्त होने में यह साताकर्म विघ्न नहीं डालता, किन्तु कषाय के सहवास से बँधे हुए पूर्वकर्म बाधक होते रहते हैं। वे जब तक पूर्ण नष्ट नहीं हो पाते हैं तब तक इस साताकर्म की अयोगवस्था के समय रुकावट हो जाने पर भी पूर्ण मुक्ति प्राप्त नहीं होती और इस साताकर्म को कर्म कहने का हेतु यह नहीं है कि इसका कुछ कार्य होता रहता है। तो? एक देश कारणभूत योग के रहने से कर्म आने की क्रिया चालू रहती है, इसलिए इस क्रिया में समाविष्ट हुई कार्मण वर्गणाओं को कर्म न कहें तो क्या कहें? इस प्रकार कर्मों के साम्परायिक और ईर्यापथ ये दो भेद हुए। अब दोनों के उदाहरण तथा समर्थन कहते हैं___ कषाय के द्वारा जीव की अवस्था गीले या चिकने चमड़े की-सी हो जाती है, इसलिए जिस प्रकार गीले चमड़े पर आकर पड़ी हुई धूल जम जाती है उसी प्रकार कषाय द्वारा आर्द्र या स्निग्ध हुए जीव में आए हुए कर्म कुछ काल के लिए जम जाते हैं इसी को साम्परायिक कर्म कहते हैं। जहाँ पर कषाय नहीं रहता वहाँ पर गीलापन या चिक्कणता नहीं हो सकती, इसीलिए जिस प्रकार माटी, पत्थर के सूखे या रुक्ष पड़े हुए ढेर में धूलकण उससे चिपटते नहीं हैं, उसी प्रकार कषाय रहित जीव निस्नेह या सूखा हो जाने के कारण उसमें आए हुए कर्म जम नहीं पाते। जैसे वे आते हैं वैसे ही चले जाते हैं । इस कर्म को ईर्यापथ कर्म कहते हैं। ये दोनों भेद हैं तो कर्मों के या जीवों के, परन्तु उपचार से आस्रव के कहे जाते हैं। साम्परायिक कर्म के आने के कारण चतुःकषाय-पञ्चाक्षैः तथा पञ्चभिरव्रतैः। क्रियाभिः पञ्चविंशत्या साम्परायिकमास्त्रवेत्॥8॥ अर्थ-चार कषाय, पाँच इन्द्रियाँ, पाँच अव्रत, पच्चीस क्रियाएँ–इनके द्वारा साम्परायिक कर्मों का 1. "सहकारिणामप्रतिनियमात्" आ.परी., का. 35 2. स्वामिभेदादास्रवभेदः।-सर्वा.सि., वृ. 616 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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