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158 :: तत्त्वार्थसार की अथवा अशुद्धता की उत्पत्ति करनेवाला कर्म साम्परायिक कहा जाता है। सकषाय जीवों में जो कर्म इकट्ठे होते हैं वे कषाय के सामर्थ्य से जीवप्रदेशों में ऐसे बद्ध हो जाते हैं कि कुछ काल पर्यन्त उसी पर्याय में ठहरते हैं, इसीलिए उनमें जीव को संसारी बनाकर रखने की योग्यता मानी जाती है। उन कर्मों को साम्परायिक' कर्म कहते हैं। जिन जीवों का कषाय शान्त या क्षीण हो गया हो उनके भीतर भी योग जब तक नष्ट नहीं हो पाता तब तक कर्मों का संग्रह होता है, क्योंकि कर्मप्रदेशों को संग्रह करने का काम योग का है, परन्तु केवल योग के द्वारा संगृहीत हुए कर्मों में टिकने का सामर्थ्य उत्पन्न नहीं होता
और न ज्ञानावरणादि नाना घातक शक्ति व्यक्त होती हैं, इसीलिए वे कर्म जिस-जिस समय में आते हैं उसी-उसी समय में निकल भी जाते हैं। उन कर्मों में आठ या एक सौ अड़तालीस भेद भी उत्पन्न नहीं होते। केवल एक प्रकार होता है जिसे कि सद्वेद्य या सातावेदनीय कहते हैं।
वह सातावेदनीय ही क्यों रहता है? इस प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है कि कर्म जितने प्रकार के हैं उन सभी में से यदि कोई अधिक आत्मानुकूल हो सकता है तो वह सातावेदनीय ही है। उपशान्त कषाय वाले जीव से लेकर ऊपर के सभी जीवों में आत्मानुकूलता की सामग्री अधिक हो जाती है, इसलिए जो कर्मबन्धन होगा वह सब कर्मों में से अच्छा होगा। साता से अच्छा दूसरा कोई कर्म नहीं है, इसलिए साता का ही बन्ध होना वहाँ सम्भव है।
सातापना एक कर्मरस है। कर्मरस का व्यक्त होना कर्माधीन है। जबकि कषाय का लेश भी न रहा हो तब साता-रस का भी उत्पन्न होना कैसे सम्भव है? इस प्रश्न का उत्तर यह हो सकता है कि असली टिकाऊ कर्म कषाय द्वारा ही बँधता है। तो भी कर्मप्रदेशों का लानेवाला योग जब तक है तब तक कर्म थोड़ा-बहुत आएगा अवश्य और जो आएगा वह किसी-न-किसी कर्मशक्ति को रखनेवाला भी होगा ही। वह शक्ति भी एक सौ अड़तालीस प्रकार से भीतर की ही हो सकती है। उनमें से शेष अनुभावक शक्तियों के कारण उपस्थित न रहने से साता का अनुभव ही स्वीकार करना पडता है और फिर वह साता भी कषाय के न रहने से टिकाऊ नहीं होती।
यहाँ पर तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार कषाय न रहते हुए भी शुक्ल लेश्या यहाँ मानी जाती है उसी प्रकार यहाँ कर्मबन्धन और वह सातारूप माना जा सकता है। कषायों के न रहने से कर्मों की टिकाऊ अवस्था नहीं होती, इसलिए यह कहना भी अनुचित नहीं है कि अकषाय जीवों के कर्म, कर्म ही नहीं हैं। कर्मों से मुक्त होने का यह ठीक पूर्वरूप है। यहाँ पर कर्मबन्ध सम्बन्धी कारण कार्यों के नाश का क्रम चालू है। वह नाश होते-होते टिकाऊपने का और कषाय का सर्वनाश हो जाता है और अनुभाग-शक्तियों में से भी साता के सिवाय सभी रुक जाती हैं। कारणों में योग और कर्मांशों में साता शेष रह जाती है।
उस साता के विषय में भी ऐसा न समझना चाहिए कि शेष अनुभाग शक्तियों की ही तरह बन्ध होते समय यह विशेषता से व्यक्त होती है। तो? जिन कार्मण वर्गणाओं में सातारूप शक्ति रहती है वे ही वर्गणा उस समय केवल बद्ध होती हैं और इसीलिए उन्हें हम साताकर्म कहते हैं। जिस प्रकार साता
1. संपरायः संसार: तत्प्रयोजनं कर्म सांपरायिकम्। ईरणमीर्या योगो गतिरित्यर्थः । तद्द्वारकं कर्म ईर्यापथम्। सर्वा.सि., वृ. 616 2. जोगा पयडिपदेसा ठिदिअणुभागा कसायदो होति (योगात्प्रकृतिप्रदेशौ स्थित्यनुभागौ कषायतो भवतः)-द्र.सं., गा. 33
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