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चतुर्थ अधिकार
आस्त्रव प्रकरण
मंगलाचरण व विषय-प्रतिज्ञा
अनन्तकेवल-ज्योतिः प्रकाशित-जगत्त्रयान्।
प्रणिपत्य जिनान् सर्वानास्रवः संप्रचक्ष्यते॥1॥ अर्थ-जिन भगवान् परिमित केवलज्ञानरूप ज्योति के द्वारा तीनों लोक को प्रकाशित करते हैं, इसलिए उन सब को नमस्कार करके उनके उपदेशानुसार मैं आस्रवतत्त्व का स्वरूप कहता हूँ।
आस्त्रव का लक्षण
कायवाङ्मनसां कर्म स्मृतो योगः स आस्त्रवः।
शुभः पुण्यस्य विज्ञेयो विपरीतश्च पाप्मनः ॥2॥ अर्थ- जब तक जीव जड़ पुद्गल मिश्रित है तब तक उसे सदा ही कर्मों का या पुद्गलों का नवीननवीन बन्धन प्राप्त होता रहता है। जिस पुद्गल से जीव का मेल हो रहा है उसे शरीर या काय कहते हैं। शरीर का स्वभाव ऐसा है कि क्षणभर के लिए भी वह स्थिर नहीं रहता। कुछ-न-कुछ परमाणु उसमें से प्रति समय निकलते हैं और कुछ आकर मिलते हैं। इन पुद्गलों में जीव फँस रहा है, इसलिए पुद्गलों के बदलने के साथ-साथ वह भी स्वस्थ होकर नहीं रह पाता, कुछ-न-कुछ उसके प्रदेशों में चंचलता होती ही रहती है। बस, इसी चंचलता को योग कहते हैं। विशेष प्रयोजन दिखाने की अपेक्षा से आस्रव, यह नाम भी पड़ता है। किसी में जुड़ना, लगना, लगाना, ऐसा अर्थ युज् धातु का है। उसी का बना हुआ यह 'योग' शब्द है। आस्रव का अर्थ आगे बताने वाले हैं।
जीव तथा शरीर जुदे नहीं रहते, इसलिए जीव की चंचलता कहने का और शरीर की चंचलता कहने का' एक ही अर्थ होता है। क्योंकि, चंचलता न केवल शरीर में ही होती है और न केवल जीव में ही। केवल शरीर में हो तो मृत में भी होना चाहिए; और केवल जीव में हो तो मुक्त होने पर भी चंचलता चलनी चाहिए। इस चंचलता के द्वारा कुछ-न-कुछ पुद्गल सदा आते रहते हैं और जीव को पूर्ववत् बद्ध करते रहते हैं।
1. "कायवाङ्मनसां कर्म कायवाङ्मनःकर्मयोगः। आत्मप्रदेशपरिस्पन्दो योगः। स निमित्तभेदात् त्रिधा भिद्यते। काययोगो, वाग्योगो
मनोयोग इति" सर्वा.सि., वृ. 610
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