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________________ 154:: तत्त्वार्थसार द्रव्य कह चुके हैं। ये चिह्न ऐसे असाधारण और लक्ष्यभर में व्यापने वाले हैं कि पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा मन में तो सर्वत्र मिलते हैं और आत्मा तथा आकाशादिक भिन्नजातीय द्रव्यों में कहीं भी नहीं मिलते, इसलिए पाँच द्रव्यों के स्थान में उक्त एक ही द्रव्य मान लेना निर्दोष तथा उपयोगी है। मन में आघातता और आहतपना दिख पड़ता है। जैसे कि भयंकर शब्द सुनने पर जैसे कानों की झिल्ली फट जाती है वैसे मन पर भी आघात पहुँचता है और वह मन, शरीर के इतर अवयवों को आघात पहुँचाता है। इसके सिवाय यह भी देखना चाहिए कि मन है क्या चीज? कर्मों की परतन्त्रता से जीव के साथ शरीर बन्धन होता है। उस बन्धन में अनेक प्रकार रहते हैं। उन प्रकारों को साधारण दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं; एक ज्ञान के साधक-बाधक, दूसरे क्रियाओं के साधक-बाधक। इन्हीं को कुछ लोग ज्ञानेन्द्रिय और कर्मेन्द्रिय के नाम से कहते हैं। हाथ, पाँव आदि कर्मेन्द्रिय हैं और मन, चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रिय हैं। जैसे शरीरावयव सब जीवों के समान नहीं होते, वैसे ही ज्ञानसाधन के अवयव भी समान नहीं होते। वनस्पति में हाथ-पाँव आदि जुदे प्रगट नहीं होते और आगे द्वीन्द्रियादि जीवों में वे अवयव क्रम से प्रकट होने लगते हैं। इसी प्रकार ज्ञानसाधक इन्द्रियों की भी क्रम से वृद्धि होते-होते जहाँ पर बाह्य इन्द्रिय पूर्ण प्रकट हो जाते हैं। उसे अमनस्क पंचेन्द्रिय कहते हैं। इसके भी ऊपर जहाँ मनन करने की योग्यता प्राप्त हो जाती है उसे समनस्क कहते हैं। जिस प्रकार बाह्य विषय के ग्राहक नेत्रादि इन्द्रिय शरीरावयव हैं, उसी प्रकार मनन रूप ज्ञान होने के जिस आधार को मन इन्द्रिय कहते हैं, वह भी शरीर का ही एक अवयव होना चाहिए। उसी के मन, हृदय, अंत:करण इत्यादि अनेकों नाम हैं। मन हृदय इत्यादिकों में कुछ लोग, कुछ भेद मानते हैं, परंतु वास्तविक भेद न होकर प्रयोजनादि के भेद से, भेद माना जा सकता है। इस प्रकार जबकि मन शरीरावयव है तो उसे शरीर से जुदी जाति का द्रव्य मानना ठीक नहीं है। इसी प्रकार सर्व इन्द्रियों को भी एक पुद्गल से हुए ही मानना ठीक होता है एवं, उन इन्द्रियों के जो शब्दादि विषय हैं उन्हें भी पुद्गल के पर्याय मानना ही ठीक है। दिशाओं की कल्पना आकाश में ही की जाती है, इसलिए दिशाओं को भी जुदा द्रव्य नहीं मानना चाहिए। इस प्रकार सब द्रव्य छह ही सिद्ध होते हैं। विशेषताओं को गुण कहते हैं, इसलिए उनकी संख्या नियत होना कठिन है। इति श्री अमृतचन्द्राचार्य रचित तत्त्वार्थसार में, धर्मश्रुतज्ञान हिन्दी टीका में अजीव तत्त्व का कथन करनेवाला तीसरा अधिकार पूर्ण हुआ। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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