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________________ 156 :: तत्त्वार्थसार साधारण दृष्टि से देखें तो शरीर के किसी भी अंगोपांग के हिलने से जो संयोग माना जाता है वह एक शरीरयोग ही कहा जाना चाहिए, परन्तु शरीर चंचलता की अपेक्षा मन तथा वचन की क्रिया कुछ विचित्र दिख पड़ती है, इसलिए शरीर, मन, वचन ये तीन भेद जुदे-जुदे कर दिए गये हैं। मन की चंचलता में विचार होना एक विशेषता है। वचन में मन की-सी विशेषता तो नहीं है, परन्तु यह विशेषता है कि कंठादि स्थानों के प्रयत्न से पास के कुछ सूक्ष्म पुद्गलों में ध्वनि उत्पन हो जाती है। ध्वनि उच्छ्वास वायु के आघात से मुख के निकलती हुई सर्व दिशाओं में पसरने लगती है। उच्छ्वास का जैसा वेग हो वैसी ही दरी तक वह ध्वनि पहँचती है। इसी को वचन कहते हैं। यद्यपि वचन स्वयं शरीर नहीं है तो भी वचनोत्पत्ति के समय शरीर में क्रिया अवश्य होती है; इसीलिए मन की तरह वचन के योग को भी शरीर के योग में गर्भित कर सकते हैं। शरीर की क्रियाओं से मन वचन की क्रियाओं में उक्त विशेषता दिख पड़ती है, इसलिए दोनों को शरीर से जुदा मान कर योग के तीन भेद कर दिये हैं। इन दोनों की चंचलता के स्वरूप से शरीर की चंचलता एक जदी ही दिख पडती है। उसका सा विचार होना ही कार्य है और न ध्वनि उत्पन्न करना ही कार्य है। यद्यपि शरीर के आघात से भी ध्वनि हो सकती है, परन्तु उसे वचन नहीं कह सकते हैं। इस प्रकार जीव में चंचलता उत्पन्न होने के कारण तीन हुए। तीन कारणों की अपेक्षा से योग के भी मनोयोग, वचनयोग, काययोग ये तीन नाम रखे गये हैं। धर्म या पुण्य के कार्यों में इनकी जब प्रवृत्ति होती है तब तीनों योगों को शुभ योग कहते हैं और जब ये पाप के कार्यों में लगते हैं तब अशुभ योग कहते हैं, अर्थात् शुभ इच्छा होने पर उत्पन्न हुआ जो योग वह शुभ कहलाता है और अशुभेच्छा से जो हो वह अशुभ कहलाता है। शुभाशुभ का सूक्ष्म स्वरूप तो विस्तृत है और आगे कहेंगे भी, परन्तु साधारणतः न्याय को शुभ तथा अन्याय को अशुभ कहते हैं। उदाहरणार्थ, (1) किसी के हित का चिन्तवन करना शुभ मनोयोग, (2) हितकारी बोलना शुभ वचनयोग, (3) दान देना, गुरु को मस्तक नवाना, शुभ काययोग। (4) अहितचिन्तवन अशुभ मनोयोग, (5) गाली देना अशुभ वचनयोग, (6) थप्पड़ मारना अशुभ काययोग। ये सामान्य छह भेद हुए। आस्रव का शब्दार्थ सरसः सलिला वाहि, द्वारमत्र जनैर्यथा। तदास्रवण-हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते॥3॥ आत्मनोऽपि तथैवैषा जिनैर्योगप्रणालिका। कर्मास्त्रवस्य हेतुत्वादास्रवो व्यपदिश्यते॥4॥ अर्थ-बहकर आनेवाले को आस्रव कहते हैं और बहकर आने का कारण भी आस्रव कहलाता 1. "प्रवृत्तिर्वाग्बुद्धिशरीरारम्भः" इति न्यायदर्शनकारस्यापि सूत्रात्मकं वचनम्। 2. "कथं योगस्य शुभाशुभत्वं? शुभपरिणामनिवृत्तो योगः शुभः । अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभ: । न पुनः शुभाशुभकर्मकारणत्वेन। यद्येवमुच्यते, शुभयोग एव न स्यात्॥" सर्वा.सि., वृ. 614 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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