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________________ 148 :: तत्त्वार्थसार पदार्थों में दिख पड़ता है वह जबकि व्यापक नहीं है तो उसके कारण को व्यापक होने की क्या आवश्यकता है? कार्यों की उत्पत्ति जैसी हो वैसा ही कारण का स्वरूप मानना ठीक है। गति, स्थिति व अवगाहनये पसरे हुए स्वभाव जान पड़ते हैं, इसलिए इन स्वभावों के जनक आकाशादि द्रव्यों को भी पसरा हुआ मानना पड़ता है। जैसे सिद्धान्तों में तिर्यक् शब्द का जो अर्थ किया है उसी को हम पसरा हुआ लिखते हैं। दूसरी तरह से यों भी इसका समर्थन हो सकता है कि पर्यायों के भेद दो हैं; एक ऊर्ध्व पर्याय दूसरे तिर्यक् पर्याय। तिर्यक् पर्यायों के उत्तर भेद तीन हैं; गति, स्थिति व अवगाहन। इसीलिए ये तीनों तिर्यक् पर्याय अपने-अपने उन धर्मादि कारणों को तिरछे सम्बद्ध हुए मानते हैं। ऊर्ध्व पर्यायों में उत्तर भेद भी नहीं है और तिरछे पर्यायों से उलटे होने के कारण काल के पर्यायों को तिरछे पसरे हुए मानने की भी आवश्यकता नहीं है, इसीलिए उनके कारणभूत कालाणुओं को भी परस्पर सम्बद्ध मानने की आवश्यकता नहीं है। गत्यादि चारों पर्यायों को हम तिर्यक व ऊर्ध्व इन दो भेदों में इसलिए गर्भित करते हैं कि ये चारों ही पर्याय हैं और पर्यायों के मूल भेद उक्त दो ही किये गये हैं। यदि गत्यादि तीनों पर्यायों का तिर्यक् पर्याय न माना जाए तो पर्यायों के दो भेद संगत न होगें अथवा गत्यादिक पर्याय ही नहीं कहे जा सकेंगे, परन्तु ये गत्यादिक पर्याय ही हैं और पर्यायों के दो ही भेद हैं इसलिए गत्यादिकों को तिर्यक् पर्याय मानना सर्वथा उचित है। यद्यपि आकाशादि अमूर्त द्रव्य प्रत्यक्षसिद्ध नहीं हैं तो भी गत्यादि चार प्रकार वस्तुओं में दिख पड़ने से उनके चार कारणों को मानना अवश्य पड़ता है। यह हम कह चुके हैं कि कारण के बिना कार्य नहीं होता और कार्यों की विचित्रता कारण भेद माने विना नहीं बन सकती है। गत्यादि चारों प्रकार परस्पर में विसदृश हैं और वस्तुस्वभाव में कुछ भी भेद करनेवाले नहीं है, इसलिए उक्त चारों प्रकार की अवस्थाएँ उत्पन्न करने के लिए चार जुदे-जुदे ही कारण मानने पड़ते हैं। यदि वे वस्तुओं के स्वभाव ही हों तो वस्तुओं में विशेषता करने वाले होने चाहिए, परन्तु वस्तुओं में इनके द्वारा कोई विशेषता नहीं होती, इसलिए ये सब वस्तु स्वभावमय नहीं हो सकते हैं एवं असत् भी नहीं हो सकते हैं। ये प्रकार औपचारिक अथवा इस सम्बन्ध से हुए माने जाते हैं अथवा यों कहिए कि जीवपुद्गल द्रव्य गत्यादि रूप से परिणत होने की योग्यता रखते हैं और धर्मादि द्रव्य गत्यादि धर्म उत्पन्न कराने की शक्ति रखते हैं, इसीलिए धर्मादि द्रव्य गत्यादि कार्यों के हेतु कहे जाते हैं और जीव पुद्गल गतियुक्त कहे जाते हैं। इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश, काल इन चार अमूर्त द्रव्यों की सत्ता युक्तिसाध्य मानी जा सकती है। पृथ्वी, जल इत्यादि और द्रव्य भी गत्यादिजनक होते हैं, परन्तु उनमें से कोई भी यावत् गत्यादि धर्मों के जनक नहीं हो सकते, किन्तु गत्यादि धर्मों की विशेषता मात्र प्रकट करते हैं, इसलिए गत्यादिकों के सामान्य कारणों को जुदा ही मानना चाहिए। दूसरी बात यह है कि जल, पृथ्वी आदिक दूसरे पदार्थों की गति में सहायक होते अवश्य हैं परन्तु जब स्वयं वे गमन करते हैं तब उन्हें भी दूसरे की सहायता लेनी ही पड़ती है। जो स्वयं गमनशक्ति का धारक हो उसे स्वयं चलते दूसरे का सहारा क्यों लेना चाहिए? 1. सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्ध्वताभेदात्। विशेषश्च प.मु., सू.। तिर्यग्यथा, गोत्वे खण्डमुण्डादयो विशेषाः। ऊर्ध्वत्वे यथा, मृत्त्वे घट कपालादयः। Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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