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________________ तृतीय अधिकार :: 149 इसलिए कि जो धर्मादिकों के अतिरिक्त गत्यादि कारण दिख पड़ते हैं वे गत्यादि धर्मों की विशेषता मात्र के साधक हैं। अत: सामान्यसाधक धर्मादि द्रव्य जुदे ही मानना न्यायसंगत जान पड़ता है। जो गत्यादि धर्मों के सामान्य साधक होंगे उनको यदि स्वयं वे क्रियाएँ करनी पड़ें तो दूसरे का सहारा न लेकर ही वे उन क्रियाओं को कर सकते हैं। आकाश को अपना अवगाहन करने के लिए, काल को अपने ऊर्ध्व पर्याय उत्पन्न करने के लिए, अधर्म को अपनी स्थिति करने के लिए अन्य वस्तुओं की सहायता लेनी नहीं पड़ती है, इसलिए अनवस्थादि दोष भी दूर हो जाते हैं। इसके लिए दृष्टान्त यह है कि जो दीपक दूसरों को प्रकाशित करता है वह स्वयं अपने को भी प्रकाशित' क्यों न कर लेगा? जिस प्रकार दृश्यमान पदार्थों को बड़ा-छोटा कहना इतर छोटे-बड़े पदार्थों की अपेक्षा से हो सकता है उसी प्रकार गति स्थिति आदि कहना भी इतर पदार्थों की अपेक्षा से होना चाहिए। आम को नारियल की अपेक्षा देखें तो छोटा जान पड़ता है और आँवले की अपेक्षा से देखें तो बड़ा जान पड़ता है। किसी भी दूसरे की तरफ न देखकर देखें तो छोटे-बड़े की भावना ही नहीं होती है, इसीलिए बड़ा या छोटापन केवल किसी एक-एक पदार्थ का धर्म नहीं है, किन्तु इतरापेक्षित है। ऐसे धर्मों को 'प्रतिजीवी स्वभाव' ऐसा नाम भी देते हैं। और जो स्वभाव अपने प्रकट होने में इतर की अपेक्षा नहीं रखते उन्हें सत्तात्मक अनुजीवी गुण-स्वभाव कहते हैं। यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि गत्यादि धर्मों का प्रादुर्भाव धर्मादिद्रव्याधीन है, स्वतन्त्र नहीं है, इसलिए गत्यादि धर्म अनुजीवी गुण नहीं हो सकेंगे। यदि हो सकते हैं तो कैसे? उत्तर-जहाँ इतर की अपेक्षा मात्र से किसी का व्यवहार होता हो और वह इतर पदार्थ व्यवहार योग्य पदार्थ के साथ जुड़कर कुछ विशेषता न करता हो वहाँ उस व्यवहार के धर्म को प्रतिजीवी स्वभाव कहते हैं। छोटे-बड़ेपन का व्यवहार इसी प्रकार का है, इसीलिए छोटा पदार्थ भी अधिक छोटे की अपेक्षा से बड़ा मान लिया जाता है। जिसकी अपेक्षा छोटा या बड़ापन माना जाता है उसका छोटे व बड़े पदार्थ के साथ कभी सम्बन्ध नहीं होता, परन्तु गत्यादिकों में यह बात नहीं है। जिस प्रकार धर्मादिकों में गति आदि स्वभावों की साधकता एक-एक धर्म अनुजीवी व सत्तात्मक माना जाता है, उसी प्रकार जीवपुद्गलों में गतिमत्ता आदि धर्म भी अनुजीवी व सत्तात्मक मानने चाहिए। क्योंकि, धर्मादिक द्रव्य पदार्थों के साथ जुड़ते हैं और गत्यादि रूप से पदार्थों की विशेषता उत्पन्न करते हैं। छोटे-बड़ेपन आदि व्यवहारों से यहाँ यह भी एक भेद है कि एक ही पदार्थ को एक ही समय में भिन्न-भिन्न अपेक्षावश कोई उसे छोटा मानता है और कोई बड़ा मान लेता है, परन्तु गत्यादि स्वभाव ऐसे हैं कि जब जिसमें एक मनुष्य को गति दिख पड़ती है तब सबों को गति ही दिख पड़ती है। उस समय किसी को भी स्थिति दिख नहीं पड़ती, इसलिए ये स्वभाव सत्तात्मक मानने चाहिए। जो सत्तात्मक होंगे और परस्पर विरोधवाले होंगे वे एक समय में एक साथ नहीं रह सकेंगे, इसीलिए गति के समय गति ही होती है, स्थिति नहीं होती एवं स्थिति के समय स्थिति ही रहती है, गति नहीं रहती है। ___ यद्यपि सत्तात्मक गुण गिनाते हुए ग्रन्थकारों ने धर्मादि द्रव्यों के गतिहेतुत्वादि गुण तो गिनाये हैं, परन्तु जीव-पुद्गलों के गतिमत्त्व आदि गुण नहीं गिनाये हैं तो भी इनका अन्तर्भाव दूसरे सत्तात्मक गुणों में हो सकता है। प्रदेशत्व तथा द्रव्यत्व गुणों में गत्यादि चारों स्वभाव गर्भित हो सकते हैं। गति, स्थिति 1. स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात्। न्या.दी. Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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