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________________ तृतीय अधिकार :: 147 यहाँ शंका यह होना सहज है कि जिस प्रकार लोकवर्ती काल, अलोकवर्ती आकाश के पर्यायों को दूर रहकर भी बदलता है उसी प्रकार लोक के भी किसी एक देश में उसकी सत्ता मान ली जाए तो सर्व लोकवर्ती सर्व जीव पुद्गलों के पर्यायों को वह बदलता रहेगा और यदि ऐसा है तो काल के असंख्य अणु सर्वत्र व्याप्त मानना अनुचित है? उत्तर-कोई भी निमित्त कारण कार्य का निमित्त तभी हो सकता है जब कि कार्य की सामग्री के साथ जुड़ गया हो। कार्य की सामग्री से अलग रहनेवाला कारण कार्य की सहायता कभी नहीं कर सकता है। काल जब कि पदार्थों के ऊर्ध्व पर्याय उत्पन्न होने में निमित्त कारण है तो यह अवश्य मानना पड़ेगा कि उन पदार्थों के साथ उसका थोड़ा-सा सम्बन्ध अवश्य होता है। अलोकवर्ती आकाश के ऊर्ध्व पर्याय होने में भी वह इसीलिए कारण होता है कि उसका आकाश के लोकवर्ती भाग के साथ सम्बन्ध है। आकाश अखंड है इसलिए सर्वत्र एक है, इसीलिए एकत्र सम्बन्ध होने से सर्वत्र उपयोग होता है, परन्तु ऐसा कभी कहीं नहीं हो सकता कि असम्बद्ध पदार्थों में कोई कारण कुछ भी अपना उपयोग दिखा सके। लोक के भीतर जीव पुद्गलों के जो ऊर्ध्व पर्याय होते हैं वे भी काल के निमित्त से होते हैं। जीव पुद्गल अव्यापी पदार्थ हैं, इसलिए किसी एक स्थान में रहनेवाले कालाणु के साथ सभी के सभी वे जीव पुद्गल सम्बन्ध नहीं कर सकते हैं, इसीलिए काल को अणुरूप मानकर भी उन्हें असंख्य और लोकभर में व्याप्त मानने पड़ते हैं। यदि किसी व्यापक द्रव्य का पर्याय मात्र उत्पन्न होने में काल को कारण माना होता तो एक अणु भी कार्यकारी हो सकता था, परन्तु अव्यापक पदार्थों के लिए भी काल कारण है, इसलिए उसकी असंख्य संख्या माननी पड़ती है। असंख्य काल के मानने में यही युक्ति है। जो पदार्थ प्रत्यक्ष से सिद्ध हैं उनके सिद्ध करने के लिए युक्ति की अपेक्षा नहीं होती और न कोई उसके स्वीकार करने में विवाद ही करता है, परन्तु जो परोक्ष हैं उनकी उतनी ही सिद्धि हो सकती है जितने के लिए कि युक्ति हो और उतना ही लोग उसका स्वरूप नि:शंक मानने के लिए तैयार होते हैं। अधिक स्वरूप मानना और मनाना मानो एक प्रकार का अज्ञान और सख्ती है, इसीलिए हम आकाशादि तीनों द्रव्यों को अखंड एक-एक और काल को असंख्यात ऐसा युक्ति द्वारा सिद्ध करते हैं। कालद्रव्य के परमाणुओं को भिन्न-भिन्न मानने के लिए ग्रन्थों में इसी प्रकार की युक्तियाँ दिख पड़ती हैं। भावार्थ-काल को व्यापक होने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि, काल की अपेक्षा से जो प्रकार 1. ते कालाणवः कतिसंख्योपेता:? लोकाकाशप्रमितासंख्येयद्रव्याणीति-द्र.सं.टी., गा. 22 2. "प्रत्यक्षसिद्धत्वेनात्र पर्यनुयोगस्यानवकाशात्। व्यापारस्य तु प्रत्यक्षसिद्धत्वाभावान्न तथा स्वभावावलम्बनं युक्तम्।"---प्रमे.क.मा., 3. "सूक्ष्मं जिनोदितं तत्त्वं हेतुभि व हन्यते। आज्ञासिद्धं तु तत्ग्राह्यं नान्यथावादिनो जिनाः॥" 4. कालस्यैकप्रदेशत्वविषये युक्ति प्रदर्शयति तद्यथा किंचिदूनचरमशरीरप्रमाणस्य सिद्धत्वपर्यायस्योपादानकारणभूतं शुद्धात्मद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव। यथा वा मनुष्य-देवादिपर्यायोपादानकारणभूतं संसारिजीवद्रव्यं तत्पर्यायप्रमाणमेव। तथा कालद्रव्यमपि समयरूपस्य कालपर्यायस्य विभागेनोपादानकारणभूतमविभाग्येकप्रदेश एव भवति । अथवा मन्दगत्या गच्छता: पुद्गलपरमाणोरेकाकाशप्रदेशपर्यन्तमेव कालद्रव्यं गते: सहकारिकारणं भवति।-द्र.सं.टी., गा. 25 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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