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________________ 146 :: तत्त्वार्थसार में जो गति, स्थिति या अवगाहना होती दिखती है वह तिरछी होती हुई दिख पड़ती है। लम्बाई, चौड़ाई को लेकर जो परिवर्तन होता है उसे तिरछा परिवर्तन कहते हैं । अथवा ऊपर से नीचे तक, नीचे से ऊपर तक तथा पूर्व पश्चिमादि दिशाओं में जो एक तरफ से दूसरी तरफ तक विस्तार लिए हुए परिवर्तन हो उसे तिर्यक् पर्याय कहते हैं । अर्थात् जिनमें क्षेत्र का आश्रय लिये हुए पर्याय उत्पन्न होता जान पड़े वे सब तिर्यक् पर्याय कहे जाते हैं और जिस पर्याय में जब-तब की कल्पना होती जान पड़े वह ऊर्ध्व पर्याय कहलाता है । 'ऊर्ध्व' शब्द का अर्थ भी क्षेत्र के सम्बन्ध से हो सकता है, परन्तु काल के प्रकरण में वह अर्थ न लेकर पूर्वापर आदि शब्दार्थ की तरह काल सम्बन्धी अर्थ लेना चाहिए। इन काल सम्बन्धी ऊर्ध्व पर्यायों में क्षेत्र की अपेक्षा नहीं ली जाती है। काल का कार्य उत्तरोत्तर अवस्थाओं का बदलते जाना है । वह बदलना एक तो अतिशीघ्र होता है और दूसरा कुछ विलम्ब से होता है । जो विलम्ब से होता है उसे अज्ञानी, ज्ञानी सभी देखते हैं। जो अि शीघ्र होता है उसे तीव्रान्तर्दृष्टि ज्ञानी मनुष्य ही समझ पाते हैं। इसी दो प्रकार के परिवर्तन को यों भी कह सकते हैं कि परिवर्तन एक ही है और वह प्रति क्षण होता है, परन्तु परिवर्तन होते-होते जब अन्तर बहुत-सा पड़ जाता है तब मन्ददृष्टियों की समझ में आता है । मन्ददृष्टि का अर्थ ही यह है कि वह अधिक स्थूल होने पर इन्द्रिय के विषय को देख सकें । इस पर से जब हम विचार करते हैं तो दिख पड़ता है कि काल के कार्यों में क्षेत्र की व क्षेत्र के कार्यों में काल की कुछ भी अपेक्षा नहीं है । जब-तब इत्यादि कल्पनाओं के द्वारा जब पर्याय बदलता हुआ हमारी समझ में आता तब पर्याय की लम्बाई, चौड़ाई का हमें कुछ भी भान नहीं होता है, परन्तु जब हम अवगाहन तथा गति- स्थिति के विषय का विचार कहते हैं तब हमें लम्बाई-चौड़ाई वा ऊँचाई की कल्पना उठती है। कोई भी पदार्थ चलते-चलते ठहर गया - ऐसी जब हमारी कल्पना होती है तब उसके ठहरने की क्रिया का विस्तार पदार्थ के विस्तार पर से ध्यान में आता है। इसी प्रकार गमन भी एक बार होकर जब तक चालू रहता है तब तक की गमनक्रिया को हम एक कहते हैं और उसकी अखंडता एक प्रदेश से अधिक प्रदेश तक जान पड़ती है। इसी प्रकार अवगाहन भी इधर-उधर पसरा हुआ सदा जान पड़ता है, परन्तु काल की क्रियाएँ जितनी होती हैं उनके साथ इधर-उधर के प्रसार की कल्पना नहीं होती है। जिनके कार्यों में पसरने की कल्पना होती है उन कारणभूत पदार्थों को भी पसरा हुआ मानना चाहिए। जिसके कार्यों में पसरने की भावना कभी नहीं होती उस कारणभूत द्रव्य को भी पसरा हुआ मानने की आवश्यकता नहीं है, इसीलिए काल को परमाणुमय भिन्न-भिन्न मानते हैं और आकाश तथा धर्माधर्म को अखंड एक द्रव्य मानते हैं । काल, लोकाकाशमात्रवर्ती होकर भी अलोकाकाश समयप्रचय रूप कालनिमित्तक ऊर्ध्व पर्याय कराने में कारण माना गया है। जैसे कुम्हार के चाक के नीचे एक कील रहती है । उसका चाक से सर्वत्र सम्बन्ध नहीं रहता तो भी वह चाक को फिराती है । यही अवस्था काल' की है । परन्तु धर्मादि द्रव्य जहाँ पर है वहीं पर अपना कार्य कर सकते हैं, अन्यत्र नहीं । 1. लोकबहिर्भागे कालाणुद्रव्याभावात् कथमाकाशद्रव्यस्य परिणतिरिति चेदखंडद्रव्यत्वादेकदेशदंडाहतकुम्भकारचक्रभ्रमणवत् । - द्र.सं.टी., गा. 22 । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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