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________________ 142 :: तत्त्वार्थसार तभी है जबकि उसमें विजातीय किसी माटी आदि का संयोग हो जाता है । इसी प्रकार एक कठोर पदार्थ से किसी नरम चीज में जख्म हो जाता है। बीज, माटी से एक जुदा पदार्थ है। वह जब माटी में डाला जाता है तब अंकुर उत्पन्न होता है। ऐसे उदाहरणों से ऊपर का नियम दृढ़ होता है । (2) जिसकी सत्ता होगी उसका सर्वथा नाश नहीं होगा। जो नहीं है उसका निर्मूल उद्भव भी नहीं होगा। बीज के बिना अंकुर नहीं होता और बीजनाश होते ही अंकुर अवश्य उत्पन्न होता है। यह देखकर उक्त नियम को सत्य मानना चाहिए । (3) कारण अनेक तथा अनेक प्रकार के जब तक न हों तब तक नाना विचित्र कार्य नहीं हो सकते हैं। इन तीन नियमों के मान लेने से जीव सिद्ध होता है । कैसे ? जग में यदि दृश्यमान एक ही रूपी पदार्थ सत्य हो तो उसमें नाना तरु-तृणादि विकार या रूपान्तर होना सम्भव नहीं है। क्योंकि, रूपी यावत् पदार्थों का वास्तविक एक ही लक्षण सिद्ध होता है। यह लक्षण जब कि सर्वत्र रह सकता है तो सभी पदार्थ एकजातीय होने चाहिए। जो एक जातीय पदार्थ होते हैं वे परस्पर मिलने पर भी किसी में उथलपुथल या विकार उत्पन्न नहीं कर सकते हैं यह बात प्रथम नियम द्वारा सिद्ध होती है । अब यह विचार करें कि, यद्यपि माटी - बीज इत्यादि जिन पदार्थों के मिलने से अंकुरादि विकार होते हैं वे भी परस्पर में विजातीय दिख पड़ेंगे। परन्तु हम उनमें भी यह प्रश्न कर सकते हैं कि जहाँ एक ही मूल द्रव्य है वहाँ बीजादि विचित्रता भी क्यों उत्पन्न हुई ? तीसरे नियम को देखिए कि कारण वास्तविक व नाना न हों तो कार्य नाना तथा विचित्र उत्पन्न नहीं हो सकते हैं अर्थात्, जब कि अन्त में मूल द्रव्य एक ही था तो नाना विचित्र सृष्टि कार्य, जो आज दिख रहे हैं वे, कभी नहीं हो सकते थे, इसलिए मानना चाहिए कि दृश्यमान पदार्थ जग में जबसे हैं तभी से इससे लक्षणवाला भी कोई पदार्थ जग में अवश्य । वह कैसा है ? दृश्यमान पदार्थ जब कि रूप से गन्ध स्पर्श युक्त और जड़ है तो इससे असली उलटा वही हो सकता है जो कि रूप रस गन्ध स्पर्श रहित और चैतन्य युक्त हो । दृश्यमान पदार्थों में रूपादि लक्षण सर्वत्र रहता है, यह हम लिख चुके हैं, इसलिए दृश्यमान पदार्थों में परस्पर विजातीयता नहीं है । दूसरे नियम के अनुसार यह शंका भी, कि जड़ पदार्थ ही कदाचित् चेतन हो जाता है, जिससे जड़ता दूर हो जाती है। यदि जड़ की जड़ता नष्ट हो सकती हो तो, सत् का लोप होना भी न्याययुक्त हो सकता है, और फिर सत् का विनाश तथा असत् का प्रादुर्भाव मानने में भी कुछ परेशानी नहीं होनी चाहिए, परन्तु ये बातें न्यायविरुद्ध हैं ऐसा हम दिखा चुके हैं । विजातीय संयोग के बिना जड़ पदार्थ में कोई भी विकार उत्पन्न नहीं हो सकता है और जिस प्रकार दूसरे विकार होना सम्भव नहीं है उसी प्रकार हलन चलन होना भी सम्भव नहीं है । हलन चलन भी एक विकार है । यद्यपि यह विकार जीव का भी गुण नहीं है, इसलिए जीव के मिल जाने पर भी वह उत्पन्न होना नहीं चाहिए - यह शंका होना सहज है; परन्तु विरुद्ध जातीय पदार्थों के योग से वस्तुओं में क्षोभ उत्पन्न होना भी सम्भव है । उसी क्षोभ का कार्य हलन चलन माना गया है, इसलिए हलन Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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