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________________ तृतीय अधिकार :: 141 कुछ लोगों का कहना है कि जड़त्व व चैतन्य ये दोनों गुण पुद्गल के ही आश्रित हैं। एक के उद्भूत होते समय दूसरा दबकर रहने लगता है, इसीलिए जड़ वस्तुओं में चेतना और चेतन में जड़ता दिख नहीं पड़ती है। ये दोनों किसी गुण के पर्याय नहीं है, किन्तु स्वतन्त्र दो गुण हैं । ऐसा मानें तो भी जीव द्रव्य को जुदा मानने की आवश्यकता नहीं रहती है। उत्तर - परस्पर विरोधी दो गुणों का एक पदार्थ में रहना सम्भव नहीं है । शीतोष्णादि परस्पर विरोधी होकर भी एक पदार्थ में रहते हुए दिख पड़ेंगे, परन्तु युगपत् नहीं और वह भी इसलिए कि एक गुण के वे पर्याय हैं। उस गुण को स्पर्श कहते हैं । स्पर्श गुण का लक्षण ऐसा है कि जो छूने पर अपना ज्ञान करा दे। यदि इसी प्रकार किसी एक गुण के जड़तादि दो पर्याय माने जाएँ तो उनका आधारभूत कोई त्रिकालाबाधित अन्य गुण होना चाहिए, परन्तु नहीं है, यह बात कह चुके हैं। यदि ये दोनों गुण ही माने जायें तो इनकी सत्ता सर्वदा रहेगी। हरे पीले पर्यायों की तरह एक के समय दूसरा न रहे, ऐसा नहीं हो सकता है। गुण के विना पर्याय नहीं होते, यह भी नियम है । यदि यों ही पर्याय उत्पन्न होने लगें तो बीज के बिना भी अंकुर हो सकेगा और ऐसा हुआ तो कार्यकारण-सम्बन्ध मानने की आवश्यकता नहीं रहनी चाहिए। एवं अनियमित चाहे जो कार्य चाहे जहाँ पर हो उठना चाहिए, परन्तु ऐसा होने से सृष्टि का क्रम ही जुड़ नहीं सकेगा, इसलिए प्रत्येक पर्याय के आश्रयभूत जुदे- जुदे गुण मानने पड़ते हैं और शाश्वतिक माने जाते हैं । गुण न मानने पर जैसे पर्याय होना सम्भव नहीं होता वैसे ही गुण - जुदेजुदे माने बिना भी काम नहीं चल सकता है। एक के जो पर्याय होंगे वे विजातीय नहीं हो सकते हैं। विजातीय का लक्षण ऐसा हो सकता है कि जिसका एक लक्षण से अन्तर्भाव न हो सके वह विजातीय है। साथ ही यह ध्यान रखना चाहिए कि सत्ता गुण का लक्षण करने पर एक भी गुण बाकी नहीं रहता - सभी सजातीय हो सकते हैं, परन्तु नानाजातीय पदार्थों को माने बिना सृष्टि का परिवर्तन होना सम्भव नहीं हो सकेगा, इसलिए सत्ता के सिवाय अवान्तर पदार्थों में परस्पर विजातीयता देखनी चाहिए । इस कथन का तात्पर्य यह हुआ कि जड़ता व चेतनता ये दोनों किसी एक गुण के पर्याय नहीं हो सकते और न ये दो गुण होकर एक पदार्थ के अधीन ही रह सकते हैं । दूसरी यह भी बात समझ लेनी चाहिए कि जो गुण होता है वह निराधार नहीं रहता । प्रत्येक गुण के लिए किसी-न-किसी आधार की आवश्यकता रहती ही है। जड़ता गुण के आधार को पुद्गल द्रव्य कहते हैं । इसी प्रकार चैतन्य गुण का आधार भी कोई द्रव्य होना चाहिए और वह आधार जड़ता का आधार नहीं हो सकता, इसलिए वह अलग एक जीव द्रव्य मानना पड़ता है। जीवसिद्धि का दूसरा प्रकार : जो जड़ से चेतन - जीव की उत्पत्ति मानते हैं उनके लिए कथन है कि (1) किसी भी पदार्थ में जब तक विजातीय संयोग नहीं होता तब तक पूर्वावस्था का परिवर्तन नहीं होता। पूर्वावस्था बदलने का कारण सर्वत्र विजातीय संयोग ही देखने में आता है। यह एक नियम हुआ । उदाहरणार्थ - शीतस्वभाव युक्त पानी तब तक नहीं सूखता जब तक कि उसमें उष्णता का थोड़ा बहुत मेल न हो, इसीलिए वह जाड़े के दिनों में देर से सूखता है और गरमी में जल्दी । वह सड़ता भी Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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