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140 :: तत्त्वार्थसार
कहते हैं । रूप रसादि रहित अवस्था का नाम अमूर्तिक है। पुद्गल द्रव्य से जीव सर्वथा उलटा है, इसीलिए वह चर्मेन्द्रियों से या बाह्येन्द्रियों से जाना नहीं जाता। तो भी जो मन में प्रत्येक ज्ञान के समय, एक आन्तरिक दृष्टि उत्पन्न होती है वह जीव का अनुभव' कराती है। उस अन्तर्विषय का हम 'अहं-मैं, मम=मेरा' इत्यादि शब्दों द्वारा उल्लेख भी कर सकते हैं।
कितने ही लोग द्राक्षादि अमादक वस्तुओं में, मादक मद्य की तरह जड़ पुद्गल में से संयोग विशेषता के वश चैतन्य-गुण का प्रादुर्भाव होना मान लेते हैं। उन्हें जीव द्रव्य अलग मान्य नहीं होता, परन्तु जहाँ चैतन्य वास्तविक स्वतन्त्र कोई गुण ही नहीं है वहाँ मद्य मादक है या नहीं इस बात की परीक्षा होना भी असम्भव हो सकता है। मद्य की शक्ति का उपयोग जीव पर ही होता है, पत्थर पर नहीं हो सकता है, इसलिए कहना चाहिए कि जीव की शक्ति ठीक मद्य के तुल्य नहीं है, किन्तु मद्य से विलक्षण है। अतएव मादक, मद्य की सत्ता पुद्गल में रह सकती है, परन्तु चैतन्यसत्ता उसके आश्रित नहीं रह सकती है। संस्कार तथा स्मरण, एवं रागद्वेषादि कुछ ऐसे चैतन्य परिणाम भी सर्वानुभव सिद्ध हैं कि जिनका पौद्गल शरीर की हानि-वृद्धि होने के साथ अविनाभाव जुड़ता नहीं है। शरीर में कुछ भी हीनाधिकता न होते समय भी ये परिवर्तन होते ही रहते हैं। पुत्र की मृत्यु सुनते ही जो दुःख होता है वह अकस्मात् होता है। शरीर के विपरिणाम का उसमें कोई सम्बन्ध जुडता नहीं दिख पड़ता है, इसीलिए इस गुण का आश्रय अलग जीव द्रव्य मानना पड़ता है।
कितने ही लोगों का यह कहना है कि जड़ता गुण, चैतन्य अवस्था में जब बदल जाते हैं तब उसे जीव कहने लगते हैं। जिस प्रकार एक हरा रंग बदलकर पीला हो जाता है। खट्टा रस बदलकर मीठा रस उत्पन्न हो जाता है। यही हालत जड़, चेतन की है। उन दोनों को एक ही पुद्गल के किसी मूल गुण का विपरिणाम रूप मान लेने से जबकि काम चल सकता है तो जीव द्रव्य को अलग मानने की क्या आवश्यकता है?
उत्तर-रूप गुण का हरा पर्याय बदलकर पीला हो जाना अथवा रस गुण का खट्टे से मीठा हो जाना जिस प्रकार निराधार नहीं है उसी प्रकार जड़-चैतन्य को कालक्रमवर्ती पर्याय माना जाए तो इनका आधार कोई त्रिकालाबाधित गुण सिद्ध होना चाहिए, परन्तु वह नहीं सिद्ध होता है। हरे, पीले आदि पर्यायों के आधारभूत गुण का हम लक्षण ऐसा करते हैं कि जो नेत्रग्राह्य हो सके वह रंग या रूप हैं। रस का लक्षण जीभ का विषय होना है। ये लक्षण रूप, रस के प्रत्येक पर्याय बदल जाने पर भी कायम रहते हैं। चैतन्यजड़ता पर्यायों का ऐसा एक भी आधार सिद्ध नहीं होता कि जो दोनों अवस्थाओं में कायम रह सकता हो और अव्याप्ति आदि दोषों से मुक्त हो सके।
1. तदहर्जस्तनेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः। भूतानन्वयनात्सिद्धिः प्रकृतिज्ञः सनातनः ।। 2. उन्मादिका शक्तिरचेतना या गुडादिसम्बन्धभवान्यदर्शि। सा चेतने ब्रूहि कथं विशिष्टदृष्टांतकक्षामधिरोहतीह ॥ धर्मश. 4.72 ।। 3. "स्वोन्मुखतया प्रतिभासनं हि स्वस्य व्यवसाय:'"-प.मु., प्र.समु., सू. 6
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