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________________ तृतीय अधिकार :: 143 चलन किसी एक पदार्थ का स्वभाव न होने पर भी विरुद्ध संयोगज स्वभाव हो सकता है। यहाँ पर एक दूसरी बात यह भी विचारने योग्य है कि जीव ऊर्ध्वगामी ही क्यों न हो, परन्तु गति स्वभाव युक्त माना गया है। वह इसीलिए कि यदि गति स्वभाव जीव का मूल स्वभाव न हो तो जड़ का संयोग होने पर भी वह जड़ की तरह हलचल नहीं हो सकेगा। जो मूल में गुण नहीं होता वह उत्तर अवस्थाओं में भी प्रकट नहीं हो सकता है, परन्तु संसार की जड़मिश्रित अवस्थाओं में हलना-चलना देखा जाता है, इसलिए मलावस्था में भी वह गण अवश्य होना चाहिए। हाँ, इतना परिवर्तन उस गुण में जड योगवशात् हो सकता है कि जो जीव शुद्धावस्था के समय ऊर्ध्वगामी है वह अशुद्धावस्था के समय सर्वतोगामी हो जाए। इस प्रकार निष्क्रिय जड़-पदार्थों को हलचल और परिवर्तन करानेवाला एक सर्वथा विरुद्ध स्वभावधारी जीवद्रव्य अवश्य मान लेना पड़ता है। ___ यद्यपि वह दिखता नहीं है, परन्तु जड़ पदार्थों की चेष्टा दिखाने से प्रेरक जीव का अनुमान हो जाता है। दिखे भी क्यों वह ! जो दिखने योग्य होता है वह जड़ वस्तुओं के विरुद्ध नहीं कहा जा सकता है, और जो जड़ से विरुद्ध नहीं होगा वह जड़ वस्तुओं में विक्रिया कैसे करेगा? इसीलिए जो जड़ वस्तुओं में विक्रिया करता है वह दृश्यमान जड़ वस्तुओं से विरुद्ध अदृश्यमान व चेतन ही होना चाहिए। जड़ निष्क्रिय होते हैं तो वह सक्रिय होना चाहिए। इस प्रकार पृथक् जीव सिद्धि होती है। जिस प्रकार जीव के संयोग बिना जड़ पदार्थों से विशेष कार्य होना सम्भव नहीं है उसी प्रकार जड़ के बिना चेतन जीव द्रव्य भी कोई विकार धारण नहीं कर सकता है। क्योंकि, विजातीय संयोग के बिना अवस्थान होना सर्वत्र न्यायविरुद्ध है, इसीलिए जग में जो केवल जीव के सिवाय कुछ नहीं मानते हैं वे अविचारी हैं। हाँ, यह हो सकता है कि जीव सर्वत्र हो और सर्व क्रियाओं का जनक हो। क्योंकि; जड़ पदार्थों में स्वयं संचार-शक्ति नहीं है, किसी विषय को योजित करने की शक्ति भी नहीं है। केवल जीव के सम्बन्ध से संचारित होने की शक्ति है और किसी भी प्रकार योजित हो जाने की शक्ति है, इसीलिए किसी भी कार्य का मुख्य कर्ता जीव ही हो सकता है। जड़ पदार्थ केवल उपभोग्य हो सकते हैं, न कि किसी कार्य के कर्ता। यह बात यद्यपि सत्य है, परन्तु यह भी नियम साथ ही मानना पड़ता है कि जीव कार्यजनक शक्ति का धारक होने पर भी शुद्ध रहने पर या होने पर कुछ भी नहीं कर सकता है, इसीलिए सर्वसृष्टि या विश्व के कर्ता जीव अवश्य हैं, परन्तु वे जड़युक्त अथवा सकर्म होने चा जो लोग जीव की कर्तत्व शक्ति के बिना विश्व की रचना होना असम्भव समझकर अलग किसी शुद्ध ब्रह्म या ईश्वर की कल्पना करते हैं वह व्यर्थ और असम्भव है। एक तो जीव जड़ में फसनेवाला जब स्वयं विद्यमान है, जो कि कर्ता होने की शक्ति रखता है तब अलग किसी कर्ता की कल्पना क्यों करना चाहिए? दूसरे, जो जड़ में लिप्त होगा वह उस जड़ को विकारयुक्त करेगा, जो स्वयं अलिप्त होगा उसके द्वारा दूसरे जीवों की सृष्टि होने का क्या सम्बन्ध है? यदि फिर भी कोई उस ईश्वर की कल्पना करे तो वह उसकी अन्ध श्रद्धा ही कहना चाहिए। 1. यथा यन्त्रप्रतिमाचेष्टितं प्रयोक्तुरस्तित्वं गमयति। सर्वा.सि., वृ. 563 Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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