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124:: तत्त्वार्थसार
है । जो दूसरों को प्रवेश करा लेता है उसे अपने रहने के लिए स्थान देखने की अलग जरूरत नहीं पड़ती है, इसलिए वह आप भी अपने में ही रहता है ।
धर्म द्रव्य की क्रिया गमन कराने की है, अधर्म द्रव्य की ठहराने की है और आकाश की क्रिया इतर द्रव्यों का प्रवेश करा लेने की है। ये सब क्रिया कब हो सकती हैं जब कि क्रिया करानेवाले धर्मादि द्रव्य स्वयं चंचल हों, परन्तु धर्मादि द्रव्यों में चंचलता है नहीं तो फिर वे किस प्रकार दूसरों में क्रिया करा सकेंगे ? इस प्रश्न का उत्तर
धर्मादि द्रव्यों की सार्थकता -
क्रिया - हेतुत्वमेतेषां निष्क्रियाणां न हीयते ।
यतः खलु बलाधानमात्रमत्र विवक्षितम् ॥ 39 ॥
अर्थ - धर्मादि द्रव्य स्वयं निश्चल हैं, तो भी क्रिया करा देना असम्भव नहीं है । जो प्रेरणा करके किसी को चंचल करना चाहे उसे स्वयं चंचल होना पड़ता है, परन्तु ये प्ररेणा नहीं करते हैं। केवल गमनादि क्रियाओं का बल द्रव्यों में आरोपित कर देते हैं।
जैसे, एक मनुष्य पुस्तक पढ़ना चाहे तो पढ़ेगा वह स्वयमेव, परन्तु दीप या सूर्यादि का प्रकाश न हो तो नहीं पढ़ सकता है, इसलिए दीपक स्वयं पढ़ाने की प्रेरणा न करता हुआ भी कारण माना जाता है। क्योंकि, पढ़ने का वह सामर्थ्य उसी ने दिया है।
काल का प्रयोजन व लक्षण
स कालो यन्निमित्ताः स्युः परिणामादि-वृत्तयः । वर्तना - लक्षणं तस्य कथयन्ति विपश्चितः ॥ 40 ॥
अर्थ - जिसके निमित्त से वस्तुओं में परिणाम क्रिया इत्यादि कार्य होते हैं और छोटे-बड़े का व्यवहार होता है उसे 'काल' कहते हैं ।
1. वस्तुओं में जो इधर से उधर जाने की क्रिया होती है उसे यहाँ क्रिया कहा है । 2. क्रिया के सिवाय जितने और परिवर्तन होते हैं उन्हें 'परिणाम' कहते हैं। 3. प्रथम उत्पन्न हुए को बड़ा कहते हैं। 4. पीछे से उपजने वाले को छोटा कहते हैं। ये चारों बातें काल के निमित्त से होती हैं। परत्वापरत्व का अर्थ छोटा-बड़ा होता है और आगे-पीछे ऐसा भी होता है। ये दोनों अर्थ वस्तुओं में रहते हैं तथा क्षेत्र में भी दिख पड़ते हैं, परन्तु यहाँ काल सम्बन्ध से जो वस्तुओं में होते हैं वे ही लेने चाहिए। क्योंकि यह प्रकरण काल का है। उक्त चारों ही कार्य इस काल द्रव्य के सूचक हैं, परन्तु निर्दोष लक्षण 'वर्तना' है, ऐसा विद्वान लोग कहते हैं ।
वर्तना का लक्षण
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'अन्तर्नीतैक - समया प्रतिद्रव्य- विपर्ययम् ।
अनुभूतिः स्वसत्तायाः स्मृता सा खलु वर्तना ॥ 41 ॥
1. यथा कारीषोऽग्निरध्यापयतीति । - सर्वा.सि., वृ. 569
2. द्रव्यस्य स्वजात्यपरित्यागेन प्रयोगवित्रसालक्षणो विकारः परिणामः । - रा. वा. 5/22, वा. 10
3. प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तनतैकसमया स्वसत्तानुभूतिर्वर्तना । - रा. वा. 5/22, वा. 4
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