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________________ तृतीय अधिकार :: 123 ऊपर चढ़ सकती है, तीव्र वेग के बीच भी रुक सकती है, जल का वेग उसे बहा नहीं सकता है, इसीलिए 'द्रव्य संग्रह' की गाथा में 'अच्छंता णेव सो णेई' अर्थात् ठहरे हुए जीव एवं पुद्गल को धर्म द्रव्य नहीं चलाता ऐसा कहा है। अभिप्राय यह है कि जब यह जीव या पुद्गल ऊर्ध्वगमन करता है तो जल में मछली की तरह ऊपर को चढ़ता है उसमें धर्म द्रव्य सहायक होता है। अधर्म द्रव्य का स्वरूप स्थित्या परिणतानां तु सचिवत्वं दधाति यः। तमधर्मं जिनाः प्राहुर्निरावरण-दर्शनाः ॥35॥ अर्थ-स्थित होने में लगे हुए पदार्थों को जो सहायता देता है, उस द्रव्य को प्रत्यक्षज्ञानी जिनेन्द्र भगवान् 'अधर्म' कहते हैं। जिनेन्द्र भगवान् अनावरणज्ञानी हैं, वे जो कहते हैं वह सब सत्य है। अधर्म द्रव्य का दृष्टान्त जीवानां पुद्गलानां च कर्तव्ये स्थित्युपग्रहे। साधारणाश्रयोऽधर्मः पृथिवीव गवां स्थितौ ॥ 36॥ अर्थ-स्थित तो सभी पदार्थ हैं, परन्तु जो चलता-चलता स्थित हो वह स्थित कहा जाता है, इसलिए 'अधर्म' को,ठहरते हुए जीव पुद्गलों के स्थित होने में सर्वसामान्य सहायक मानते हैं। जैसे, पशुओं के ठहरने में पृथिवी ही है। उसी प्रकार गमन में धर्म द्रव्य की तरह यह 'अधर्म द्रव्य' यावत् ठहरने में एक सामान्य कारण है। अधर्म द्रव्य को समझाने के लिए छाया और पथिक का उदाहरण भी देते हैं। जिस प्रकार वृक्ष की छाया वृक्ष के नीचे आसपास ही रहती है, पथिक छाया में रुक भी सकता है, अन्यथा छाया से निकलने पर छाया पथिक को रोकती नहीं है, अत: 'द्रव्यसंग्रह' की गाथा में 'गच्छंता णेव सो धरई' अर्थात् चलते हुए को अधर्म द्रव्य ठहराता नहीं है-यह कथन समीचीन है। आकाश द्रव्य का लक्षण आकाशान्तेऽत्र द्रव्याणि स्वयमाकाशतेऽथवा। द्रव्याणामवकाशं वा करोत्याकाशमस्त्यतः॥ 37॥ अर्थ-सभी द्रव्य इसमें प्रकाशित होते हैं और स्वयं भी यह प्रकाशित होता रहता है एवं सब द्रव्यों को यह अवकाश देता है, इसलिए इसे आकाश कहते हैं। इस प्रकार इस द्रव्य का 'आकाश' नाम पड़ने में उक्त तीन हेतु हैं। आकाश द्रव्य का कार्य जीवानां पुद्गलानां च कालस्याधर्म-धर्मयोः। अवगाहन-हेतुत्वं तदिदं प्रतिपद्यते॥38॥ अर्थ-जीव, पुद्गल, काल, अधर्म, धर्म-इन पाँचों द्रव्यों का प्रवेश कर रखना ही आकाश का प्रयोजन है। छह द्रव्यों में से पाँच प्रवेश करनेवाले हैं और छठा यह आकाश द्रव्य प्रवेश करा लेनेवाला Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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