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________________ तृतीय अधिकार :: 125 अर्थ - प्रत्येक द्रव्य के प्रत्येक सूक्ष्म पर्याय में जो एक समय के भीतर उसकी सत्ता का अनुभव होते दिखता है वह वर्तना समझनी चाहिए। वर्तना की सहायकता आत्मना वर्तमानानां द्रव्याणां निजपर्ययैः । वर्तनाकरणात्कालो' भजते हेतुकर्तृताम् ॥ 42 ॥ अर्थ- द्रव्यों में जो अपने-अपने पर्याय होते रहते हैं, वे अपने आप ही होते हैं तो भी उनका वर्तन कराना काल के अधीन है, इसलिए वर्तन-क्रिया का मूलकर्ता तो स्वयं अपना द्रव्य ही होता है, परन्तु कर्ता का है । क्रिया के कर्ता को जो सहायता देता है उसे हेतुकर्ता कहते हैं। सभी पदार्थ अपने पर्यायों के करने में कर्ता आप ही रहते हैं तो भी काल उन सबों को सहायता देता है, इसलिए मूल कर्ताओं की क्रिया देखी जाए तो पर्यायों का वर्तना है और सहायक काल की क्रिया देखी जाए तो वर्ताना है। यहाँ जो वर्तना को काल का लक्षण कहा है उस वर्तना का अर्थ वर्ताना ही है । 'वर्तना' का अर्थ वर्तना भी होता है, परन्तु वह शक्ति या क्रिया वस्तुओं के अन्तर्गत रहनेवाली हो सकती है, इसीलिए वह काल का ठीक लक्षण I काल की निष्क्रियता का समर्थन न चास्य हेतुकर्तृत्वं निष्क्रियस्य विरुध्यते । यतो निमित्तमात्रेऽपि हेतु - कर्तृत्वमिष्यते ॥ 43 ॥ अर्थ - धर्मादि द्रव्यों की तरह काल भी स्वयं निष्क्रिय है, तो भी पर्याय उत्पन्न करनेवाले द्रव्यों की निमित्तमात्र सहायता करने में कुछ असम्भवता नहीं हो सकती है, क्योंकि जो उदासीन होते हैं वे भी हेतुकर्ता या कर्ताओं के सहायक कहे जा सकते हैं । यहाँ भी उदाहरण दीपक का समझिए । दीपक, पढ़ने में सहायक हो सकता है तो भी वह स्वयं किसी क्रिया को करता नहीं है । निश्चय काल द्रव्य की स्थिति एकैकवृत्त्या प्रत्येकमणवस्तस्य निष्क्रियाः । लोकाकाश-प्रदेशेषु, रत्नराशिरिव स्थिताः ॥ 44 ॥ अर्थ-लोकाकाश के प्रदेशों में कालद्रव्य के एक-एक अणु ठहरे हुए हैं। वे अणु परस्पर में बद्ध नहीं है, एक-दूसरे से भिड़े हुए हैं, इसीलिए वे एक रत्नराशि के समान कहे जाते हैं । वे अणु जुदेजुदे होने से काल द्रव्य की असंख्यात संख्या मानी जाती है । काल द्रव्य को समझाने के लिए रत्नों की राशि का दृष्टान्त क्यों दिया ? उत्तर - जैसे लोक - व्यवहार में रत्न कीमती होते हैं, उसी प्रकार काल द्रव्य Jain Educationa International 1. णिजन्ताद्युचि वर्तना । - रा. वा. 5/22, वा. 2 2. तद्योजको हेतुः ॥ क्रियायाः कर्तुर्यः प्रयोजको भवति स हेतुकर्तृसंज्ञको भवेत् । हेतौ णिचु । For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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