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________________ 116 :: तत्त्वार्थसार | घड़ी, मुहूर्त आदि रूप कल्पना को व्यवहार काल' कहते हैं । जो भूत, भविष्यत् आदि कल्पनाएँ उत्पन्न करने का मूल कारण है उसे निश्चय काल कहते हैं। इनमें से जो निश्चय काल तथा पुद्गल द्रव्य के परमाणु हैं, उनका एक - एक प्रदेश मात्र स्वरूप है। प्रत्येक काल का एक-एक परमाणु जुदा-जुदा एक-दूसरे में कोई भी कालाणु मिलकर अखंड एक द्रव्य रूप नहीं होता और न अनादि से ही रहा है, इसलिए काल सदा ही एक प्रदेश मात्र है। उसके अन्तर्गत प्रदेश- कल्पना नहीं होती, इसलिए उसे अप्रदेशी कहते हैं। स्वयं यद्यपि प्रदेश मात्र है तो भी उसे प्रदेशी नहीं कह सकते हैं। प्रदेशी वहाँ कहा जा सकता है जो कि किसी बड़े पदार्थ का एक सूक्ष्म अंश हो । काल में परम- अणु अवस्था स्वयं है, इसलिए वह एक अणु रहने पर भी प्रदेशी या प्रदेश युक्त कहने में नहीं आता है। पुद्गलों के परमाणुओं की भी यही बात है। वे जब जुदे-जुदे स्वतन्त्र रहते हैं तब स्वत: एक प्रदेश मात्र हैं, इसलिए अप्रदेशी कहे जाते हैं। व्यवहार काल को भी काल कहते हैं, परन्तु द्रव्य के कालकृत पर्याय का नाम व्यवहार काल है। वे पर्याय अपने-अपने द्रव्यों में शामिल हो जाते हैं। वह कोई जुदा काल नामक द्रव्य नहीं है जिससे कि उसका अप्रदेश आदि विशेषणों द्वारा वर्णन कर सकें, इसीलिए उसको काल कहना भी अमुख्य है। उसे केवल भविष्यत्' आदि तथा घटिका आदि नामों से कहना ही वास्तविक है । कुछ लोग वस्तुगत क्रियाओं को ही काल कहते हैं । वे निश्चयकाल' को जुदा नहीं मानते हैं, परन्तु वास्तव में एक जुदा कालद्रव्य होना ही चाहिए। नहीं तो जगत् में से काल का नाम ही नष्ट हो जाना चाहिए | मुहूर्तादिक जो काल के नाम हैं वे एक स्वतन्त्र कालद्रव्य के बिना नहीं हो सकते हैं। जिस प्रकार 'देवदत्त' यह एक स्वतन्त्र नाम रहते हुए भी उसको यदि दंडी कहें तो वह दंडी नाम एक देवदत्त की अपेक्षा से नहीं हो सकता, वहाँ सम्बन्ध रखनेवाला दंड भी मानना ही पड़ता है। इसी प्रकार मुहूर्तादि साध्य पर्यायों के 'घटादि' ये नाम स्वतन्त्र रहते हुए भी मुहूर्तादि नाम, बिना अन्य सम्बन्ध के नहीं कहे जा सकते हैं, इसीलिए मुहूर्तादि विशेषण उत्पन्न करनेवाला काल एक स्वतन्त्र जुदा भी अवश्य मानना ही उचित है। नहीं तो कालवाचक नामों का व्यवहार निराधार हो जाएगा। द्रव्यों के रहने का क्षेत्र लोकाकाशेऽवगाहः स्याद् द्रव्याणां न पुनर्बहिः । लोकालोक-विभागः स्यादतएवाम्बरस्य हि ॥ 22 ॥ अर्थ - लोकाकाश के भीतर ही सब द्रव्यों का ठहरना है अथवा द्रव्यों का जितने आकाश में ठहराव है उसी का नाम लोकाकाश है। उससे बाहर कभी द्रव्य नहीं जाते और न रहते ही हैं, इसीलिए आकाश 1. व्यवहारकाले कालव्यपदेशो गौणः भूतादिव्यपदेशो मुख्यः । निश्चयकाले तु भूतादिव्यपदेशो गौण: कालव्यपदेशो मुख्यः । तयोः कालकृतत्वाद् द्रव्यपर्यायकृतत्वाच्च (सर्वा.सि., वृ. 569 ) । 2. यथा वृक्षपङ्क्तिमनुसरतो देवदत्तस्य एकैकतरुं प्रति प्राप्तः प्राप्नुवन् प्राप्स्यन्निति व्यपदेशस्तथा तत्कालाणूननुसरतां द्रव्याणां क्रमेण वर्तनापर्यायमनुभवतां भूतवर्तमानभविष्यद्व्यवहारसद्भावः । तत्र परमार्थकाले भूतादिव्यपदेशो गौणः, व्यवहारकाले मुख्यः । (रा.वा., 5 / 22, वा. 25 ) 1 3. क्रियामात्रमेव कालस्तद्व्यतिरेकेणानुपलब्धेरिति चेन्न, कालाभिधानलोपप्रसंगात् । (रा.वा., 5/22, वा. 26) 4. समय उच्छ्वासो निश्वासो मुहूर्त इति स्वसंज्ञाभिर्निरूढानां काल इत्याभिधानमकस्मान्न भवति । (वही) । 5. यथा देवदत्तसंज्ञया निरूढे पिण्डे दण्ड्यभिधानमकस्मान्न भवतीति दण्डसम्बन्धसिद्धिः । तथा कालसिद्धिरपि ( वही ) । Jain Educationa International For Personal and Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003694
Book TitleTattvartha Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitsagar
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2010
Total Pages410
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size18 MB
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